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सुसि ग़ाफ़िल
सैकड़ों रेखाएं, अजीबोगरीब आकृतियां, त्रिभुज, वृत्ताकार, गोलाकार, समांतर चलती हुई ट्रेन की पटरी, षट्भुज, अजीबोगरीब सुनसान रास्ते, फूलों से सटे कमरे, कीचड़ से निकलते हवा के बुलबुले, खाली पड़े डब्बे, लाल आंखें, सुजा हुआ चेहरा, दीमक के घर, टेडी मेडी टहनियां, हृदय के बीच से गुजरती तरंगे, लाल कपड़ा, चमकती हुई बिजलियां इन सब को छोड़कर अटक जाता है मेरा मन एक बिंदु पर वह बिंदु मेरे माथे पर ठुकी कील के बिल्कुल नीचे है! मुझे महसूस होता है यहां पर जख्म का जन्म हुआ है | सैकड़ों रेखाएं, अजीबोगरीब आकृतियां, त्रिभुज, वृत्ताकार, गोलाकार, समांतर चलती हुई ट्रेन की पटरी, षट्भुज, अजीबोगरीब सुनसान रास्ते, फूलों से स
रजनीश "स्वच्छंद"
कुछ तेरा था कुछ मेरा था।। धरती के टुकड़े का ये हिस्सा, कुछ तेरा था कुछ मेरा था। उदय अवसान का ये किस्सा, कुछ तेरा था कुछ मेरा था। सुबह की लाली लिए किरण, थी सार छुपाये कण कण में। पत्तों से झांक रही शर्मीली, अवतार छुपाये एक मन मे। एक नया सवेरा आने को, कुछ उत्सुक और बेचैन रहा। कुसुम कली डाली संग झूमे, बीत चला जो उनका रैन रहा। प्रखर भविष्य का ये किस्सा, कुछ तेरा था कुछ मेरा था। एक दिव्य स्वप्न जो देखा था, साकार हुआ सा लगता है। ये इंद्रधनुषी ये बहुरंगी, वृत्ताकार हुआ सा लगता है। धरती अम्बर का एक मिलन, देखो अनन्त में दिखता है। टूटे बन्धन करबद्ध वंदन, ये कवि अंत में लिखता है। आदि अंत का ये किस्सा, कुछ तेरा था कुछ मेरा था। एक बात कही जो पुरखों ने, हर रात की एक तो सुबह रही। आते जो देखी रश्मि किरण, अंधियारी भी देखो दुबक रही। ललक लिए अपने मन मे, नवजीवन का अवतार हुआ। अग्नि जल वायु धरा गगन, पंचतत्वों का मंत्रोच्चार हुआ। इन तत्वों का एक एक हिस्सा, कुछ तेरा था कुछ मेरा था। अनवरत कठिन तप जो रहा, फलदायी होने वाला है। अनुशरण किया जग का तुमने, अनुयायी होने वाला है। शौर्य चहुंदिश कोटि जन गायें, तान प्रत्यंचा लक्ष्य साध तू। शंख भेरी की मृदुल तान पर, कुंडल कवच वक्ष बांध तू। कवि-वीर का ये किस्सा, कुछ तेरा था कुछ मेरा था। ©रजनीश "स्वछंद" कुछ तेरा था कुछ मेरा था।। धरती के टुकड़े का ये हिस्सा, कुछ तेरा था कुछ मेरा था। उदय अवसान का ये किस्सा, कुछ तेरा था कुछ मेरा था। सुबह की ला
रजनीश "स्वच्छंद"
त्रिशंकु।। नियत और नियति के महासमर में, बन त्रिशंकु डोल रहा। निजकर्मों की हर एक आहट पर, भविष्य द्वार हूँ खोल रहा। जब उठना था बैठा रहा, जब चलना था ठहर गया। दम्भ काल्पनिक पाले था, सच देखा तो सिहर गया। कब सपनों का साथ रहा, वृत्ताकार बस चलना था। तिनके चुन चुन जो बुने थे, ठेस लगी और बिखर गया। कोई जुगत नहीं संयोग नहीं, रहा अनुकूल ये योग नहीं। चिंगारी बन जलता दर्द रहा, वैद्य कहे है कोई रोग नहीं। आंसू भी छलक अब सूखे हैं, बिन पानी दरिया में डूबे हैं। आकंठ रहा अहसास मुझे, भँवर में तैर रहे किस बूते हैं। चपल हुआ अब चपल भी नहीं, सफल तो रहा है सफल भी नहीं। आस के धागे बस रहे उलझते, भविष्य नहीं कोई कल भी नहीं। कब सार थी गर्भित इन शब्दों में, बस बजता ढोल रहा। नियत और नियति के महासमर में, बन त्रिशंकु डोल रहा। एक आस पुंज की ज्योति लिए, तमद्वार उलाहना चलती रही। दिन के उजियारे तपन बड़ी थी, जीवन मे रात उतरती रही। सूरज का उगना भी मेरे, राहों को रौशन कब कर पाया। वृक्ष लगाए ताड़ के बैठा, कैसे मिले फिर कोई छाया। बिन आयाम ही मैं बहुआयामी था, तज सारे कर्म बना फलकामी था। ना बुद्ध चन्द्रमा मंगल सूर्य, फ़नकाढे शनि ही ग्रहों का स्वामी था। आस्तिक बनूँ या बनूँ नास्तिक, दे दस्तक खुद को बोल रहा। नियत और नियति के महासमर में, बन त्रिशंकु डोल रहा। ©रजनीश "स्वछंद" त्रिशंकु।। नियत और नियति के महासमर में, बन त्रिशंकु डोल रहा। निजकर्मों की हर एक आहट पर, भविष्य द्वार हूँ खोल रहा। जब उठना था बैठा रहा,
रजनीश "स्वच्छंद"
मैं भष्मासुर।। मैं मानव हूँ मैं श्रेष्ठ रहा, मैं बुद्धि-बल से ज्येष्ठ रहा। मेरी विजय का बजता डंका, हस्तिनापुर हो या हो लंका। मुझमे विवेक विशेष रहा, जग अविवेकी शेष रहा। इस युग का मैं निर्माता हूँ, नीति-नियंता विधाता हूँ। धरा नदी ये पर्वत सारे, मेरे विवेक के आगे हारे। पाषाण में तप था बहुत किया, मनचाहा वर सृष्टि ने दिया। पल में मैं सागर लांघ रहा, मुर्गा अभी भी देता बांग रहा। वो सदियों से वहीं पे बैठा रहा, मानो जड़ता ही उसमे पैठा रहा। हमने विकास का मंत्र लिया, हर काम हवाले यंत्र किया। अब मौत भी मुझसे हारी है, मेरी बुद्धि ही सबपे भारी है। मैं ब्रह्मा विष्णु महेश हुआ, जग बाकी सब दरवेश हुआ। जो आज मैं अंदर झांक रहा, कितना सच है जो हांक रहा। मैंने जो तप था बड़ा किया, वर ले सृष्टि को खड़ा किया। अमरत्व का वर था मांगा मैने, था सृष्टि नियम भी लांघा मैंने। जो मांगा मुझको मिलता रहा, मेरे बल से जग ये हिलता रहा। सृष्टि से वर ले दम्भ हुआ, एक खोट प्रकट अविलम्ब हुआ। जो हुआ मैं निर्माता सृष्टि का, बदला था सार मेरी दृष्टि का। ले वर करने मैँ अंत चला, हत्या उसकी जो अनन्त चला। प्रकृति भी जब मुझसे हारी, बोली कि अब मेरी बारी। बन मोहिनी भौतिकता छाई थी, अभिशाप छुपा संग लायी थी। मैं कामातुर मोहित उस पर, एक नृत्य हुआ उस उत्सव पर। निज हाथों में भष्म का वर मेरा, नृत्य ऐसा था कर-नीचे सर मेरा। फिर वही कहानी गढ़ी गयी, एक छद्म लड़ाई लड़ी गयी। था भष्मासुर अवतरित हुआ, बलशाली पर भंगुर त्वरित हुआ। मैं मनुज नहीं मैं भष्मासुर, अपनी हत्या को ही आतुर। वृत्ताकार समय जो चलता है, हर युग भष्मासुर मरता है। ©रजनीश "स्वछंद" मैं भष्मासुर।। मैं मानव हूँ मैं श्रेष्ठ रहा, मैं बुद्धि-बल से ज्येष्ठ रहा। मेरी विजय का बजता डंका, हस्तिनापुर हो या हो लंका। मुझमे विवेक वि
AK__Alfaaz..
उसके, मन के, मकान का, एक चौकोर कमरा, जहाँ दीवारें चार, ना कोई दहलीज, ना कोई दरवाजा, बस, एक उम्मीद की बंद खिड़की, जो खुलती साल के, सावन मे एकबार, और.., बटोरकर सीलन गम की, दर्द की कुंडी लगा, बंद कर दी जाती, हर रात, #पूर्ण_रचना_अनुशीर्षक_मे #मन_का_मकान उसके, मन के, मकान का, एक चौकोर कमरा,
AB
©alps मेरी ज़ोया🖤 , तुम ही तो कहती हो ना मोहब्बत ज़िंदगी देती है, माँ की तरह गले लगती है, बाबा की तरह होंसला देती है, मगर नहीं सिखाती कभी मरना, ज़िं
AK__Alfaaz..
रात्रि की चादर तले, वो..तीसरे पहर, बड़ी गहराई से नापती है, अपने मन के सूत से, अपनी पीड़ाओं को, नैंनों की कोरों पर, सजे..दो मोती, काजल..की कालिख मे, सन गए हैं उसके, होठों की लाली उसकी, पढ़ना चाहती हैं हथेलियां, और...पढ़कर, लिखना चाहती हैं, दिल की स्लेट पर, #पूर्ण_रचना_अनुशीर्षक_मे #अक्षत_कामायनी रात्रि की चादर तले, वो..तीसरे पहर, बड़ी गहराई से नापती है,
AK__Alfaaz..
जेठ की, तपती भूमि पर, आषाढ़ मे गिरी, उसके नैनों से, विश्वास की बूंद, भाप बनकर उड़ गई, पीड़ाओं की चलती लू मे, उन बिखरे दिनों की, इक टूटी साँझ को, उसकी हथेलियों पर, इक तिरछी लकीर उभर आयी, आशाओं की, जिसे..काटकर आगे बढ़ी थी, उसके हिस्से की, समर्पण की लकीर, #पूर्ण_रचना_अनुशीर्षक_मे #अहिल्या जेठ की, तपती भूमि पर, आषाढ़ मे गिरी, उसके नैनों से,