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Braj Mohan
कहीं भेद है भाषा का तो, कहीं बोली अजब निराली है। देख जरा मधुपान कराती गंगा तट से प्यास बुझाली है। रंग-रंग के फूल खिले हैं, खुशबू में सबकी हिस्सेदारी है। कौन कहे पौरुष पुरुष है फिर भी नारी सब पर भारी है। कहीं घाघरो देख तो कहीं चुनरियाँ सतरंगिनी न्यारी है। बरन-बरन के भेष बने सब होंठन मुस्कान बनी प्यारी है। ©Braj Mohan #Rang #बृजमोहन #baisakhi
Mehandra Parihar
*एक #तवायफ ने आत्मकथा लिखने की क्या सोची* *शहर के सारे #शरीफ खुदखुशी पर उतर आए*.... परिहार क्यूटूज