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गणेश अाँसु
एक्कासी हावाको झोक्का आयो धुलोको कण सहित पातहरू उडे डाँठहरू उडे निर्दोष फूल हरु उडे सजाएका सपनाहरु सबै उडे जिन्दगी जिन्दगी रहेन क्षण भरमै जिउँदो लास सरी भयो 😭😭😭😭 गणेश आँसु कावासोती ८ नवलपुर 😭जिन्दगीको गोरेटोमा अनेकौं पीडा हरु 😭
Yudi Shah
"निर्मला हरु बचाउ" मेरो आमा न रोए पनि कसैको आमा त रुदैछन न्यायका लागि क्यौ दिनसम्म बहिनी र आमा कुरिदैछन न्याय पाउने आसमा र निर्मला हरु बचाउ हुने खासमा बाच्दैछन सुन्दा र हेर्दा ती अखबारका पन्नाहरु अब जलाउन मन गर्दैछन... क्यौ वर्षदेखी निर्मला झैँ बलात्कृत हुदैछन कहिले यहाँ त कहिले वहाँ कोहि रुदैछन अझपनि यी हाम्रा समाजका निर्मलाहरुको आत्मसम्मान माथी चिरहरण हुदैछन कहाँ गए त ? ती समाजका बुद्धिजीवीहरु निर्मला हरु बचाउ हात समाती सगोल भै खै केही भन्दैछन... ©Yudi Shah "निर्मला हरु बचाउ" मेरो आमा न रोए पनि कसैको आमा त रुदैछन न्यायका लागि क्यौ दिनसम्म बहिनी र आमा कुरिदैछन न्याय पाउने आसमा र निर्मला हरु बचाउ
Vikas Sharma Shivaaya'
🙏सुन्दरकांड🙏 दोहा – 9 रावण को क्रोध आता है आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान। परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन ॥9॥ सीता के मुख से कठोर वचन अर्थात अपनेको खद्योत के (जुगनूके) तुल्य औररामचन्द्रजी को सुर्य के समान सुनकर रावण को बड़ा क्रोध हुआ जिससे उसने तलवार निकाल कर, बड़े गुस्से से आकर ये वचन कहे ॥9॥ श्री राम, जय राम, जय जय राम रावण सीताजी को कृपाण से भय दिखाता है सीता तैं मम कृत अपमाना। कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना॥ नाहिं त सपदि मानु मम बानी। सुमुखि होति न त जीवन हानी॥ हे सीता! तूने मेरा मान भंग कर दिया है।इस वास्ते इस कठोर खडग (कृपान) से मैं तेरा सिर उड़ा दूंगा॥हे सुमुखी, या तो तू जल्दी मेरा कहना मान ले,नहीं तो तेरा जी जाता है,(नही तो जीवन से हाथ धोना पड़ेगा)॥ माता सीता के कठोर वचन स्याम सरोज दाम सम सुंदर। प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर॥ सो भुज कंठ कि तव असि घोरा। सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा॥ रावण के ये वचन सुनकर सीताजी ने कहा,हे शठ रावण, सुन,मेरा भी तो ऐसा पक्का प्रण है की या तो इस कंठ पर श्याम कमलो की मालाके समान सुन्दर और हाथिओ के सुन्ड के समान (पुष्ट तथा विशाल) रामचन्द्रजी की भुजा रहेगी या तेरी यह भयानक तलवार।अर्थात रामचन्द्रजी के बिना मुझे मरना मंजूर है,पर अन्य का स्पर्श नहीं करूंगी॥ माता सीता तलवार से प्रार्थना करती है चंद्रहास हरु मम परितापं। रघुपति बिरह अनल संजातं॥ सीतल निसित बहसि बर धारा। कह सीता हरु मम दुख भारा॥ सीता उस तलवार से प्रार्थना करती है कि हे तलवार!तू मेरे संताप को दूर कर,क्योंकि मै रामचन्द्र जी की विरहरूप अग्निसे संतप्त हो रही हूँ॥ सीताजी कहती है, हे चन्द्रहास (तलवार)!तेरी शीतल धारासे (तू शीतल, तीव्र और श्रेष्ठ धारा बहाती है, तेरी धारा ठंडी और तेज है) मेरे भारी दुख़ को दूर कर॥ मंदोदरी रावण को समझाती है सुनत बचन पुनि मारन धावा। मयतनयाँ कहि नीति बुझावा॥ कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई। सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई॥ सीता जीके ये वचन सुन कर,रावण फिर सीताजी को मारने को दौड़ा। तब मय दैत्य की कन्या मंदोदरी ने निति के वचन कह कर उसको समझाया॥फिर रावण ने सीता जी की रखवारी सब राक्षसियों को बुलाकर कहा कि –तुम जाकर सीता को अनेक प्रकार से भय दिखाओ॥ रावण राक्षसियों को आदेश देता है मास दिवस महुँ कहा न माना। तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना॥ यदि वह एक महीने के भीतर मेरा कहना नहीं मानेगी,तो मैं तलवार निकाल कर उसे मार डालूँगा॥ विष्णु सहस्रनाम(एक हजार नाम) आज 395 से 406 नाम 395 विरामः जिनमे प्राणियों का विराम (अंत) होता है 396 विरजः विषय सेवन में जिनका राग नहीं रहा है 397 मार्गः जिन्हे जानकार मुमुक्षुजन अमर हो जाते हैं 398 नेयः ज्ञान से जीव को परमात्वभाव की तरफ ले जाने वाले 399 नयः नेता 400 अनयः जिनका कोई और नेता नहीं है 401 वीरः विक्रमशाली 402 शक्तिमतां श्रेष्ठः सभी शक्तिमानों में श्रेष्ठ 403 धर्मः समस्त भूतों को धारण करने वाले 404 धर्मविदुत्तमः श्रुतियाँ और स्मृतियाँ जिनकी आज्ञास्वरूप है 405 वैकुण्ठः जगत के आरम्भ में बिखरे हुए भूतों को परस्पर मिलाकर उनकी गति रोकने वाले 406 पुरुषः सबसे पहले होने वाले 🙏बोलो मेरे सतगुरु श्री बाबा लाल दयाल जी महाराज की जय 🌹 ©Vikas Sharma Shivaaya' 🙏सुन्दरकांड🙏 दोहा – 9 रावण को क्रोध आता है आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान। परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन ॥9॥ सीता के मुख से
Vikas Sharma Shivaaya'
🙏सुन्दरकांड🙏 दोहा – 11 सीताजी मन में सोचने लगती है जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच। मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच ॥11॥ फिर सब राक्षसियाँ मिलकर जहां तहां चली गयी-तब सीताजी अपने मनमें सोच करने लगी की –एक महिना बितने के बाद यह नीच राक्षस (रावण) मुझे मार डालेगा ॥11॥ श्री राम, जय राम, जय जय राम सीताजी और त्रिजटा का संवाद माता सीता, त्रिजटा को, श्रीराम से विरहके दुःख के बारे में बताती है त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी। मातु बिपति संगिनि तैं मोरी॥ तजौं देह करु बेगि उपाई। दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई॥ फिर त्रिजटाके पास हाथ जोड़कर सीताजी ने कहा की हे माता-तू मेरी सच्ची विपत्तिकी संगिनी (साथिन) है॥सीताजी कहती है की जल्दी उपाय कर नहीं तो मै अपना देह तजती हूँ(जल्दी कोई ऐसा उपाय कर जिससे मै शरीर छोड़ सकूँ)क्योंकि अब मुझसे अति दुखद विरहका दुःख सहा नहीं जाता॥ सीताजी का दुःख आनि काठ रचु चिता बनाई। मातु अनल पुनि देहि लगाई॥ सत्य करहि मम प्रीति सयानी। सुनै को श्रवन सूल सम बानी॥ हे माता! अब तू जल्दी काठ ला और चिता बना कर मुझको जलानेके वास्ते जल्दी उसमे आग लगा दे॥ हे सयानी! तू मेरी प्रीति सत्य कर- रावण की शूल के समान दुःख देने वाली वाणी कानो से कौन सुने?सीता जी के ऐसे शूल के सामान महा भयानाक वचन सुनकर॥ त्रिजटा सीताजी को सांत्वना देती है सुनत बचन पद गहि समुझाएसि। प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि॥ निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी। अस कहि सो निज भवन सिधारी॥ त्रिजटा ने तुरंत सीताजी के चरण पकड़ कर उन्हे समझायाऔर प्रभु रामचन्द्रजी का प्रताप, बल और उनका सुयश सुनाया और सीताजी से कहा की हे राजपुत्री! हे सुकुमारी!अभी रात्री है, इसलिए अभी आग नहीं मिल सकत ऐसा कहा कर वहा अपने घरको चली गयी॥ सीताजी को प्रभु राम से विरह का दुःख आसमान के तारे कह सीता बिधि भा प्रतिकूला। हिमिलि न पावक मिटिहि न सूला॥ देखिअत प्रगट गगन अंगारा। अवनि न आवत एकउ तारा॥ तब अकेली बैठी बैठी सीताजी कहने लगी की क्या करूँ विधाता ही विपरीत हो गया-अब न तो अग्नि मिले और न मेरा दुःख कोई तरहसे मिट सके॥ऐसे कह तारो को देख कर सीताजी कहती है की ये आकाश के भीतर तो बहुत से अंगारे दिखाई दे रहे है,परंतु पृथ्वी पर पर इनमे से एक भी तारा नहीं आता॥ चन्द्रमा और अशोक वृक्ष पावकमय ससि स्रवत न आगी। मानहुँ मोहि जानि हतभागी॥ सुनहि बिनय मम बिटप असोका। सत्य नाम करु हरु मम सोका॥ सीताजी चन्द्रमा को देखकर कहती है कि यह चन्द्रमा का स्वरुप अग्निमय दिख पड़ता है,पर यह भी मानो मुझको मंदभागिन जानकार आग को नहीं बरसाता॥अशोक के वृक्ष को देखकर उससे प्रार्थना करती है कि -हे अशोक वृक्ष!मेरी विनती सुनकर तू अपना नाम सत्य कर।अर्थात मुझे अशोक अर्थात शोकरहित कर।मेरे शोकको दूर कर (मेरा शोक हर ले)॥ सीताजी को दुखी देखकर हनुमानजी को दुःख होता है नूतन किसलय अनल समाना। देहि अगिनि जनि करहि निदाना॥ देखि परम बिरहाकुल सीता। सो छन कपिहि कलप सम बीता॥ तेरे नए-नए कोमल पत्ते अग्नि के समान है ,तुम मुझको अग्नि देकर मुझको शांत करो॥इस प्रकार सीताजीको विरह से अत्यन्त व्याकुल देखकर हनुमानजी का वह एक क्षण कल्प के समान बीतता गया॥ विष्णु सहस्रनाम(एक हजार नाम) आज 466 से 477 नाम 466 स्ववशः जगत की उत्पत्ति, स्थिति और लय के कारण हैं 467 व्यापी सर्वव्यापी 468 नैकात्मा जो विभिन्न विभूतियों के द्वारा नाना प्रकार से स्थित हैं 469 नैककर्मकृत् जो संसार की उत्पत्ति, उन्नति और विपत्ति आदि अनेक कर्म करते हैं 470 वत्सरः जिनमे सब कुछ बसा हुआ है 471 वत्सलः भक्तों के स्नेही 472 वत्सी वत्सों का पालन करने वाले 473 रत्नगर्भः रत्न जिनके गर्भरूप हैं 474 धनेश्वरः जो धनों के स्वामी हैं 475 धर्मगुब् धर्म का गोपन(रक्षा) करने वाले हैं 476 धर्मकृत् धर्म की मर्यादा के अनुसार आचरण वाले हैं 477 धर्मी धर्मों को धारण करने वाले हैं 🙏बोलो मेरे सतगुरु श्री बाबा लाल दयाल जी महाराज की जय🌹 ©Vikas Sharma Shivaaya' 🙏सुन्दरकांड🙏 दोहा – 11 सीताजी मन में सोचने लगती है जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच। मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच ॥11॥ फिर सब रा