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Sarita Shreyasi
सगे-सहोदर को तज कर, नये संबंधों को अपनाती है, अंक से अपने वंश देकर भी, आंशिक ही अपनायी जाती है। प्रकृति की बनायी प्रतिमा, फिर से तोड़ी और गढ़ी जाती है, तस्वीरों में सजकर वह किसी के साथ ही मढ़ी जाती है। अपनों और अपनाये हुओं के बीच अपनी जगह तलाशती, आदि से अंत तक परायी रह जाती है, तब जाकर यहाँ औरत पूरी कहलाती है। सगे-सहोदर को तज कर, नये संबंधों को अपनाती है, अंक से अपने वंश देकर भी, आंशिक ही अपनायी जाती है। प्रकृति की बनायी प्रतिमा, फिर से तोड़ी और गढ
अशेष_शून्य
नक्काशियां कई उकेरी है उसने असमान के माथे पर ; कई कश्तियां मढ़ी हैं उसने समंदर के हाथों पर। ~© अंजली राय वो अपनी चोटों पर चोट करता रहता है वो खुद को खुद ही तराशता रहता है । नक्काशियां कई उकेरी है उसने असमान के माथे पर ; कई कश्तियां मढ़ी हैं उस