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Parasram Arora
सभ्यता क़े पौराणिक अवशेष ढोते ढोते. वो विनम्रता की आदर्श बैलगाड़ी आज भी सुपरसोनिक युग क़े. गाँव कस्बे और महानगरों तक अपना अस्तित्व चिरजीवी रखने मे सफल रही है और जीवन को धीमी रफ्तार से चलाने का मूक और प्रेरक संदेश भी देने मे सक्षम हुई है ©Parasram Arora # पौराणिक अवशेष.....
Yashpal singh gusain badal'
देनहार कोई और है, देवत है दिन रैन मध्यकालीन युग के भारत के महान संत कवियों में से एक थे कवि रहीम सैन - जिनकी विचारधारा आज भी उतनी ही प्रभावशाली है जितनी उनके समय में थी। कवि रहीम का पूरा नाम अब्दुल रहीम खानखाना था। वे गोस्वामी तुलसीदास के समकालीन थे और अकबर के नवरत्नों में से एक थे। वे बड़े दानशील थे और अपनी व्यक्तिगत आय से बहुत कुछ नियमित रूप से दान कर दिया करते थे। प्रतिदिन सुबह, जब वे अपने घर के बाहर बैठते - तो बहुत से ज़रूरतमंद लोग उनके पास आते और वे उनकी ज़रूरत के अनुसार उनकी झोली धन, वस्त्र या अन्न इत्यादि से भर देते थे । लेकिन उनका दान देने का अपना ही एक अनोखा अंदाज़ था। ये बात प्रसिद्ध थी कि रहीम जब भी किसी को दान देते - तो अपनी आँखें नीची रखते और कभी भी लोगों से आँखें नहीं मिलाते थे। गोस्वामी तुलसीदास ने एक बार रहीम को पत्र लिखकर उन्हें पूछा कि वे दान करते समय अपनी आँखें नीची क्यों कर लेते हैं? उन्होंने लिखा – ऐसी देनी देन जू - कित सीखे हो सैन। ज्यों-ज्यों कर ऊँचे करो, त्यों-त्यों नीचे नैन॥ अर्थात हे मित्र - तुम ऐसे दान क्यों देते हो? ऐसा तुमने कहाँ से सीखा? (मैंने सुना है) कि जैसे जैसे तुम अपने हाथ दान करने के लिये उठाते हो, वैसे वैसे अपनी आँखें नीची कर लेते हो। रहीम ने उत्तर में जो लिखा वो नम्रता और बुद्धिमत्ता से परिपूर्ण था। देनहार कोई और है, देवत है दिन रैन। लोग भरम हम पर करें, याते नीचे नैन॥ अर्थात - देने वाला तो कोई और - यानी ईश्वर है - जो दिन रात दे रहे हैं। लेकिन लोग समझते हैं कि मैं दे रहा हूँ, इसलिये मेरी आँखें अनायास ही शर्म से झुक जाती हैं। ©Yashpal singh gusain badal' #cloud पौराणिक कथा