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Divyanshu Pathak
'मैं धरा तुम धूप'-03 तुम धूप काहे कर्क रेखा चूमते हो! अक्ष पर रुकते मकर को भूलते हो। एक वक्त में एकसाथ सबके हो नहीं बंजारा बनके क्यों धरा पर घूमते हो! तुम धरा सी घूमती अपनी धुरी पर धूप सा मुझको बताकर झूमती हो मैं अड़िग स्थिर हमेशा ही रहा पर तुम मुझे लेकर ध्रुवों तक दौड़ती हो। मैं रहूँ सापेक्ष विषुवत वृत्त के ही क्यों प्रदीपन पट्ट से तुम जोड़ती हो? उत्तरी कभी दक्षिणी अयनांत पर तुम आधी रात को सूरज इसी से देखती हो। परिभ्रमण का चाब तेरा ही ग़ज़ब है। परिक्रमण से भाव ऋतु होती सजग है। उत्तरी गोलार्ध वासंती विषुभ है तो दक्षिणी गोलार्ध में होता शरद् है। मैं धरा तुम धूप'-03 तुम धूप काहे कर्क रेखा चूमते हो! अक्ष पर रुकते मकर को भूलते हो। एक वक्त में एकसाथ सबके हो नहीं बंजारा बनके क्यों धरा पर
Vaghela Jateen
रूह पराई प्रेम प्रतिद्वंद्वी है एक अनोखा सभी मित्र अपनी हाइकु रचना बनाकर collobration करे.... मेरी तड़प रूहानियत से है.. या है रूह से!! हाइकु का स्वरूप ●••••••••••••••••●