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Shiv gopal awasthi
ऐसा पढ़ना भी क्या पढ़ना,मन की पुस्तक पढ़ न पाए, भले चढ़े हों रोज हिमालय,घर की सीढ़ी चढ़ न पाए। पता चला है बढ़े बहुत हैं,शोहरत भी है खूब कमाई, लेकिन दिशा गलत थी उनकी,सही दिशा में बढ़ न पाए। बाँट रहे थे मृदु मुस्कानें,मेरे हिस्से डाँट लिखी थी, सोच रहा था उनसे लड़ना ,प्रेम विवश हम लड़ न पाए। उनका ये सौभाग्य कहूँ या,अपना ही दुर्भाग्य कहूँ मैं, दोष सभी थे उनके लेकिन,उनके मत्थे मढ़ न पाए। थे शर्मीले हम स्वभाव से,प्रेम पत्र तक लिखे न हमने। चंद्र रश्मियाँ चुगीं हमेशा,सपनें भी हम गढ़ न पाए। कवि-शिव गोपाल अवस्थी ©Shiv gopal awasthi कविता
Praveen Jain "पल्लव"
पल्लव की डायरी परस्पर बढे मेल ,संवेदना और करुणा की लौ जगाना है हिंसा का भाव उभरे ना किसी में अपनी शांती और जीवन का मार्ग सुलभ बनाना है जियो और जीने दो सभी को अहिंसा से विश्व में,मानवता का पाठ पढ़ाना है प्रकृति के संसाधनों ने जो दिया है उसी अनुरूप जीने का लक्ष्य बनाना है हर चराचर जीवो का रखो ख्याल खुद के लिये शांति का मार्ग बनाना है उन्मादी बनकर हिंसा प्रतिहिंसा फैलाना नरको को जैसा माहौल संसार मे बनाना है प्रवीण जैन पल्लव ©Praveen Jain "पल्लव" #God हिंसा का भाव उभरे ना किसी मे #nojotohindi
Jagdish Pant
फूल देई का त्यौहार था, मैं फिर भी बैठा अकेला था । चारों तरफ़ हर्षोल्लास था, मैं अकेला बैठा निराश था । जब मैने चारों तरफ देखा , तब पता चला कि मैं गांव से दूर किसी शहर के भिड़ में बैठा अकेला उदाश था ।। ✍️ Jagdish Pant आज फूलदेई के पर्व पर एक कविता मेने लिखि ।