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MAHENDRA SINGH PRAKHAR
गीत :- नेह विलुप्त मुझे अब दिखता , देखो चारों ओर । डरकर रहते रिश्ते सारे , लिए स्वार्थ की डोर ।। नेह विलुप्त मुझे अब दिखता ... मातु-पिता का प्रेम अनूठा , कल तक जिस संसार । वंश प्रेम में अब वह खोकर , भूले सब संस्कार ।। अब तो डरते मातु-पिता हैं , देख तनय के कोर । नेह विलुप्त मुझे अब दिखता... भेदभाव की गठरी बाँधी , औ सिकहर दी टाँग । आज वही डसते हैं देखो , बनके काले नाग ।। इस जग का रखवाला लगता , छोड़े बैठा छोर । नेह विलुप्त मुझे अब दिखता... दुनिया के इस मेले में सब , बैठे है कंगाल । दीदी जीजा साला साली , की अब बने मिसाल ।। बाकी रिश्तों में तो दिखता , छाया कलयुग घोर । नेह विलुप्त मुझे अब दिखता .. दादी नानी काकी मौसी , की किसको परवाह । नहीं किसी को भी रिश्तों में , दिखती थोड़ी चाह ।। मरघट तक है सूना-सूना , है माया का जोर । नेह विलुप्त मुझे अब दिखता ... नेह विलुप्त मुझे अब दिखता , देखो चारों ओर । डर कर रहते रिश्ते सारे ,लिए स्वार्थ की डोर ।। २२/०८/२०२३ - महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR गीत :- नेह विलुप्त मुझे अब दिखता , देखो चारों ओर । डरकर रहते रिश्ते सारे , लिए स्वार्थ की डोर ।। नेह विलुप्त मुझे अब दिखता ... मातु-पिता का