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N S Yadav GoldMine
महेश्वर क्या अब भी आप तटस्थ रहेंगे? शिव हंसकर बोले देवी! प्रश्न मेरी प्रसन्नता या तटस्थता का नही है जानिए इस कथा के बारे में !! 💥💥 {Bolo Ji Radhey Radhey} त्याग, मोह और मुक्ति :- 💠 एक बार भगवती पार्वती के साथ भगवान शिव पृथ्वी पर भ्रमण कर रहे थे। भ्रमण करते हुए वे एक वन-क्षेत्र से गुजरे। विस्तृत वन-क्षेत्र में वृक्षों की सघन माला के मध्य उन्हें एक ज्योतिर्मय मानवाकृति दिखाई दी। रुक्ष केशराशि ने निरावरण बाहुओं को अच्छादित कर रखा था। अस्पष्ट आलोक में भी तपस्वी की उज्वल छवि दर्शनीय थी। जगत जननी पार्वती ने मुग्ध भाव से कहा – इतने विस्तृत साम्राज्य का अधिपति, इतने विशाल वैभव और ऐश्वर्य का स्वामी तथा त्याग की ऐसी अपूर्व नि:स्पृह भावना! धन्य हैं भर्तृहरि। 💠 भगवान शिव ने आश्चर्य भंगिमा से पार्वती को निहारा – क्या देखकर इतना मुग्ध हो उठी हैं देवी? पार्वती बोलीं – तपस्वी का त्याग भाव। और क्या? शिव बोले – अच्छा! लेकिन मैंने तो कुछ और ही देखा देवी! तपस्वी का त्याग तो उसका अतीत था। अतीत के प्रति प्रतिक्रियाभिव्यक्ति से क्या लाभ? देखना ही था तो इसका वर्तमान देखतीं। पार्वती ने ध्यानपूर्वक देखा। तपस्वी के निकट तीन वस्तुएं रखी थीं – तीन भौतिक वस्तुएं। संग्रह का मोह दर्शाती वस्तुएं – एक पंखा, एक जलपात्र और एक शीश आलंबक (तकिया)। वस्तुओं को देखकर पार्वती ने खेद भरे स्वर में कहा – प्रभो! निश्चय ही मैंने प्रतिक्रियाभिव्यक्ति में शीघ्रता कर दी। 💠 यह सुनकर शिव मुस्करा उठे। फिर, दोनों आगे बढ़ गए। समय बीता। साधना गहन हुई। बोध भाव निखरा। वैराग्य घनीभूत हुआ तो भर्तृहरि को आभास हुआ – अरे! मेरे समीप ये अनावश्यक वस्तुएं क्यों रखी हैं? प्रकृति प्रदत्त समीर जब स्वयं ही इस देह को उपकृत कर देता है तो इस पंखे का क्या प्रयोजन? जल अंजलि में भरकर भी पिया जा सकता है और इस शीश को आलंबन देने हेतु क्या बाहुओं का उपयोग नहीं किया जा सकता? 💠 तपस्वी ने तत्काल तीनों वस्तुएं दूर हटा दीं। पुन: साधना में लीन हो गए। कुछ समय बाद शिव और पार्वती पुन: भ्रमण करते हुए वहां पहुंचे। देवी पार्वती ने तपस्वी को देखा। भौतिक साधनों को अनुपस्थिति पाकर वे प्रसन्न हो उठीं। उत्साहित होकर उन्होंने शिव को देखा, लेकिन उनके मुख पर वैसी ही पूर्ववत तटस्थता छाई थी। उन्होंने दृष्टि संकेत दिया। पार्वती की दृष्टि तपस्वी की ओर मुड़ गई। उन्होंने देखा। भर्तृहरि उठे। अपना भिक्षापात्र लेकर अति शीघ्रता से ग्राम्य-सीमा में प्रवेश कर गए। शिव ने पार्वती से कहा – देवी! साधक के हाथ में भिक्षापात्र, क्षुधापूर्ति हेतु ग्राम्य जीवन के निकट निवास और एकांत से भय! यह वैराग्य की परिपक्वता दर्शाता है। इसे परिपक्व होने में समय लगेगा। हमें अभी प्रस्थान करना चाहिए। 💠 समय व्यतीत हुआ। बोध भावना दी साधना कुछ अधिक प्रखर हुई तो भर्तृहरि ने विचार किया – संन्यासी होकर भिक्षाटन में बहुमूल्य समय का दुरूपयोग करना और ग्राम्य-कोलाहल के निकट निवास करना सर्वथा अनुचित है। भर्तृहरि ने निर्जन श्मशान को अपना आवास बना लिया। भिक्षार्थ भ्रमण बंद कर दिया और जनकल्याणार्थ वैराग्यशतक की रचना में लीन हो गए। उनकी तल्लीनता दैहिक आवश्यकताओं से ऊपर उठने लगी। रात्रि से दिवस, दिवस से रात्रि वे निरंतर साहित्य-सृजन ले लीन रहने लगे। कोई स्वयं आकर कुछ दे जाता तो ठीक, अन्यथा निराहार ही सृजन में लगे रहते। 💠 एक बार निराहार रहते हुए कई दिन बीत गए। अन्नाभाव से शरीर-बल क्षीण होने लगा। दुर्बलता असहनीय होने लगी। फिर भी वे आत्मिक जिजीविषा के बल पर निरंतर रचना कार्य करते रहे। लेकिन जब क्षीणता में मृत्युबोध होने लगा तो उन्हें भोजनार्थ उद्यम उचित लगा। वैराग्य शतक के जनहिताय सृजन कर्म को वे अपूर्ण नहीं रहने देना चाहते थे। अत: वे किसी तरह आगे बढ़े, पास ही कई चिताएं धू-धू करती हुई आकाश को छू रही थीं। उन्होंने देखा कि चिताओं के निकट पिंडदान के रूप में आटे की दो लोइयां रखी हैं तथा एक भग्नपात्र में जल भी है। भर्तृहरि आटे की लोइयां जलनी चिता पर सेंकने लगे। 💠 यह देख भगवती पार्वती विह्वल हो उठीं और बोलीं – देखिए तो ऐश्वर्यशाली नृप को, जिसके राज्य की श्री-समृद्धि में काग भी स्वर्ण चुग सकते थे, वे किस नि:स्पृहता के साथ सत्कार्य समर्पित इस जीवन की रक्षा हेतु पिंडदान की लोइयां सेंक रहा है? आह! मर्मभेदी है यह क्षण। कहिए महेश्वर, क्या अब भी आप तटस्थ रहेंगे? शिव हंसकर बोले – देवी! प्रश्न मेरी प्रसन्नता या तटस्थता का नही है। प्रश्न तो साधना की सत्यता का है। यदि साधक पवित्र है, तो भला साधक को शिव क्यों न मिलेगा? पार्वती उसी व्यथित स्वर में बोलीं – इस दृश्य से सत्य और सुंदर कुछ और हो सकता है क्या? आश्चर्य है! सहज ही मुग्ध हो उठने वाला आपका भोला हृदय इस बार यूं निर्विकार क्यों बना हुआ है? 💠 देवी! व्यथित न हों। आप स्वयं चलकर साधक की साधना का मूल्यांकन करें और तब निर्णय लें तो अधिक श्रेयस्कर होगा। भगवान शिव और भगवती पार्वती ने कृशकाय और दीन ब्राह्मण युगल का वेष धारण कर लिया और भर्तृहरि के सम्मुख पहुंचे। भर्तृहरि आहार ग्रहण करने को उद्यत हुए ही थे कि अतिथि युगल को सम्मुख पाकर रुक गए। उन्होंने क्षीण वाणी में कहा – अतिथि युगल! कृपया आहार ग्रहण कर मुझे उपकृत करें। शिव बोले – साधक! आहार देखकर, वुभुक्षा तो जाग्रत हुई थी। लेकिन हम कोई और मार्ग खोज लेंगे। क्यों विप्रवर! कोई और मार्ग क्यों? 💠 क्योंकि इस आहार की आवश्यकता हमसे अधिक आपको है। हां तपस्वी! इस आहार से आप अपनी क्षुधा को तृप्त करें, हमारी तृप्ति स्वयमेव ही हो जाएगी। पार्वती बोलीं। नहीं माते! मेरे समक्ष आकर भी आप अतृप्त रह जाएं, ऐसा मुझे स्वीकार नहीं। दोनों रोटियां ब्राह्मण युगल की ओर बढ़ाते हुए भर्तृहरि के मुख पर दान का दर्प मुखर हो उठा – माते! आप मेरी दृढ़ता से परिचित नहीं हैं। अपनी दृढ़ता के समक्ष जब मैंने अपने विशाल और ऐश्वर्य संपन्न राज्य तथा अथाह और अपरिमित श्री-संपत्ति को त्यागने में एक क्षण का विलंब न किया तो क्या आज इन पिंडदान की लोइयों का मोह करूंगा? 💠 अनायास ही पार्वती हंस पड़ीं। किंतु उस हंसी में प्रशस्ति को खनक न होकर किंचित उपहास की ध्वनि थी। उन्होंने कहा – तपस्वी! आश्चर्य है कि तुमने अपना राज्य कैसे छोड़ दिया? साधुवेष धारण करके तुम्हारी बुद्धि अभी तक वणिक वृत्ति से भौतिक वस्तुओं की माप-तौल पर टिकी हुई है। तुम मोह से निवृत्ति का दंभ करते हो। लेकिन इतना अच्छा होता कि तुमने राज्य त्यागने के स्थान पर अपनी तथाकथित निर्मोहिता के अहंकार से मुक्ति पा ली होती। यह सुनकर भर्तृहरि ठगे से देखते रह गए। ब्राह्मण दंपति के रूप में आए परम शिव और शक्ति शून्य में लोप हो चुके थे। दिशाओं में केवल हंसी की गूंज थी और हाथों में वही दो रोटियां। N S Yadav... ©N S Yadav GoldMine #Dhanteras महेश्वर क्या अब भी आप तटस्थ रहेंगे? शिव हंसकर बोले देवी! प्रश्न मेरी प्रसन्नता या तटस्थता का नही है जानिए इस कथा के बारे में !! 💥
Anil Siwach
Himanshu Bhatt
ग्रीष्म ऋतु का संदेश ग्रीष्म ऋतु का संदेश देखो कितनी सुन्दर है प्रकृति है भला कौन इसका शिल्पी बिखरी सुंदरता पग-पग पर आखिर यह रचना है क