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MAHENDRA SINGH PRAKHAR
दोहा :- चंचल चंचल मन की जो कभी , सुनते आप पुकार । दौड़े आते साजना , प्रियतम के ही द्वार ।। च़चल मन की वो खुशी , देख सके क्या आप । मन ही मन खिलता रहा , सुनकर ये पदचाप ।। चंचल मन ने बाँध ली , आज प्रेम की डोर । कैसे निकलेंगे सजन , नैना है चितचोर ।। चंचल दिखती है पवन , छेड़े मन के तार । आने वाले हैं सजन , लायी खत इस बार ।। चंचल मन वैरी हुआ , करके उनसे प्रीति । सुधि भी वह लेता नहीं , निभा रही मैं रीति ।। २७/०२/२०२४ - महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR दोहा :- चंचल चंचल मन की जो कभी , सुनते आप पुकार । दौड़े आते साजना , प्रियतम के ही द्वार ।।
MAHENDRA SINGH PRAKHAR
यूँ ही लोगो को जोड़ते रहना । रंग जीवन में घोलते रहना ।।१ आप रिश्ते न तोलते रहना । कुछ दुआ भी तो मांगते रहना ।।२ दूरियां रख लो चाहे जितनी तुम । बस मधुर बोल बोलते रहना ।।३ तोड़ कर कुछ सही नही होता । बाद फिर आप सोचते रहना ।।४ बाँध के प्रीत का चलें धागा । दूर से क्यूँ यूँ ताकते रहना ।।५ बाँट देगें वो मजहबों में फिर । तुम खुली आँख से देखते रहना ।।६ लौट के फिर नहीं बहे गंगा । फिर प्रखर चाहे रोकते रहना ।।७ २१/०२/२०२४ - महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR यूँ ही लोगो को जोड़ते रहना । रंग जीवन में घोलते रहना ।।१ आप रिश्ते न तोलते रहना । कुछ दुआ भी तो मांगते रहना ।।२