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प्रिन्शु लोकेश तिवारी
*आधुनिकता मे खोता बचपन* हम भूल गए उस बचपन को जब कागज की नाव बनाते थे। बारिश के मौसम में हम सब अपनी नाव बहाते थे ।१। अब लिए मोबाइल गलियों में पागल की भांति फिरते हैं । आधुनिकता के गड्ढे में अब ठोकर खा के गिरते हैं ।२। हम भूल गए उस बचपन को जब मिल के रोटी खाते थे। स्कूलों में मैडम जी को अच्छे अच्छे गीत सुनाते थे।३। नए जमाने में हम सब अब मैगी इटली खाते है। लिए मोबाइल जेबों मे बस हनी सिंह ही गाते हैं।४। बचपन में हम लोगों की होती छोटी कश्ती थी। देख हमारे इन कर्मों को मेरी मम्मी हँसती थी।५। नये जमाने के चक्कर मे डूब गई वो मेरी कश्ती। व्हॉट्सएप के चुटकुलों में अब तो पूरी दुनिया हंसती।६। बचपन में वो मेरी मम्मी हमको प्रिन्शु लल्ला कहती थी। प्यार भरी थोड़ी बातों में फिर दोनों की आँखें बहती थी।७। नए जमाने के कारण अब लोकेश बना अब फिरता हूँ। उसी प्यार की बोली में अब फट से जबाब दे देता हूँ।८। बचपन की एक बात निराली मित्र होते सब पक्के। लड़के हो या लड़कि हो होते थे दिल के सच्चे।९। आज-काल के परिवेशों में मित्र कहाँ वो मित्र रहे। न ही उनमें प्रेम भाव है हम तो जढ़ के जड़ ही रहे।१०। इसीलिए कहता हूँ प्यारे बचपन जैसा भाव रखो। आधुनिकता को गोली मारो प्रेम सभी से सामान रखो।११। #आधुनिकता_मे_खोता_बचपन *आधुनिकता मे खोता बचपन* हम भूल गए उस बचपन को जब कागज की नाव बनाते थे। बारिश के मौसम में हम सब अपनी नाव बहाते थे ।१।
Dileep Kumar
😂School Ki Yadey....😁 School ki yaadवो लड़किया भी किसी आतंकवादी से कम नही हुआ करती थी...जो टिचर के क्लास मे आते ही याद दिला देती है ..सर आपने टेस्ट का बोला था...आ
PANKI SE LIVE
Somya Tiwari (Poetic_Girl_Somu)
please read My Full Poem in (Caption )✍️✍️✍️ #citylife कुछ गाड़ियों में चलते है कुछ टुकड़ो पर पलते है, कुछ ऐ सी में रहते है कुछ सड़को पर सड़ते है, इन्शानियत को भूलकर लोग धर्मो के लिए लड़ते
#काव्यार्पण
तू बेलगाम सा घोड़ा है मै अनुशासन प्रिय नारी हूं तू बेशक गंदा पानी है मैं भागीरथी दुलारी हूं दो बोल जो मीठे बोल दिये तू सर पर मेरे बैठ गया कैसे तूने ये सोंच लिया मैं अब से सिर्फ तुम्हारी हूं। मेरे झुमके के उद्दवेलन से ये पवन सुहानी चलती है एक पल को मैं मुस्काऊं तब ये कच्ची कलियां खिलती हैं जब केश मेरे लहराते हैं तब काली घटा छा जाती है मेरे यौवन से ले सुगंध रति में सुंदरता आती है तू पाप की गठरी जोड़ रहा मैं पुण्य की भागीदारी हूं तूने जब मन को सहलाया मैं उस पल की आभारी हूं तू शहर का शोर शराबा है मैं गांव की कोयल प्यारी हूं। कैसे तुमने ये सोंच लिया मैं अब से सिर्फ तुम्हारी हूं। 2.तुम वर्तमान की कालिख हो प्रारब्ध की मैं पुरवाई हूं तुम आभासी प्रतिबिंब सदा मैं अंतस की गहराई हूं तुम धूं धूं कर के जलते हो मैं सरिता जैसी बहती हूं तुम टोंका टांकी करते हो मैं पृथ्वी सा सब सहती हूं गर लगे हमारे मुंह तो अब हम दुर्गा ही बन जायेंगे है यू पी पुलिस में धाक बड़ी ऐंटी रोमियो बुलायेगे मैं पति प्राइवेट सेक्टर हूं ना मैं जनहित में जारी हूं। कैसे तुमने ये सोंच लिया मैं अब से सिर्फ तुम्हारी हूं। 3. ना बातचीत का ढंग तुझे मैं कितनी ही मृदुभाषी हूं तू नॉनस्टॉप-सा म्यूजिक है मैं मौन की बस अभिलाषी हूं है नई नई तेरी दौलत इसलिए तुझे अभिमान हुआ मेरा परिवार सदा से ही संस्कारों से धनवान हुआ है नशा तुझे दौलत का तो ये निश्चय क्षीण हो जायेगा अपनी मृत्यु पर क्या फिर तू पैसे से भीड़ जुटाएगा है ब्राह्मण कुल में जन्म हुआ है गर्व मुझे संस्कारी हूं। कैसे तुमने ये सोंच लिया मैं अब से सिर्फ तुम्हारी हूं। 4.तुम चाइनीज मोबाईल हो और मैं एप्पल का ब्रांड प्रिये तुम बेशक बादशाह होगे मैं हनी सिंह की फैन प्रिये तुम कपिल की बकबक सुनते हो और मैं बिग बॉस की दर्शक हूं तुम खुद को सलमान समझते हो मैं तुमसे भी आकर्षक हूं हम सीतापुर वाले साहब कट्टाधारी कहलाते हैं यदि बात हमारे प्रेम की हो तो नतमस्तक हो जाते हैं चिंदी चोर चांदनी चौक के तुम मैं नैमिषधाम दुलारी हूं। कैसे तुमने ये सोंच लिया मैं अब से सिर्फ तुम्हारी हूं। कवयित्री - प्रज्ञा शुक्ला सीतापुर ©#काव्यार्पण #proposeday #kavyarpan #nojoto #sitapur #HappyRoseDay तू बेलगाम सा घोड़ा है मै अनुशासन प्रिय नारी हूं तू बेशक गंदा पानी है मैं भागीरथी
Agrawal Vinay Vinayak
हम 90 के दशक में पैदा हुए ठलुए है जनाब [ Read Caption ] हम 90 के दशक में पैदा हुवे ठलुए हैं ज़नाब…हमने #दुनिया को बदलते हुवे देखकर #दुनियादारी सीखा है.. और सिर्फ़ सीखा ही नहीं बल्कि जिया है उसको।
Vandana
एक अनोखी चीज हाथ लगी है। देखो तो बहुत खास लगी है । पढ़ोगे तो चकरा जाओगे, कैसे कैसे बातें भूल जाओगे, "आदमी की सोच उसे कहां ले जाती है। विचारों को वह कैसे सजाती है। एक नवयुवती छज्जे पर बैठी है, केश खुले हुए हैं और चेहरे को देखकर लगता है कि वह उदास है। उसकी मुख मुद्रा देखकर लग रहा है कि जैसे वह छत से कूदक
ᎻᎪᎡՏᎻ🖋
टी-सीरीज़ की स्थापना 11 जुलाई 1983 को, [13] गुलशन कुमार द्वारा, [14] उस समय दिल्ली के दरियागंज मोहल्ले में एक अस्पष्ट फलों के रस विक्रेता ने