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Abhishek Rajhans
वक़्त की आंच पर पत्थर भी पिघल जाते है कहकहे टूट कर अश्को में बदल जाते है अरे उम्र भर कौन यहाँ किसका साथ देता है वक़्त के साथ साथ तो ख्याल और जज्बात भी बदल जाते हैं--अभिषेक राजहंस वक़्त की आंच पर पत्थर भी पिघल जाते है कहकहे टूट कर अश्को में बदल जाते है अरे उम्र भर कौन यहाँ किसका साथ देता है वक़्त के साथ साथ तो ख्याल और
Dilip Singh Harpreet
सरस्वती वंदना प्रकृति - राजस्थानी करूँ छू परणाम थने , ओ मां शारदे दे दे अस्यो बरदान , जीवण ने तार दे ज्ञान को म्हूँ दीयो जळाऊँ सुबे - शाम थने मनाऊँ नुंवा - नुंवा सबदा स्यूँ करूँ छू थारी आरती ओ मां भारती ... ओ मां भारती अेक हाथ म्ह माळा साजे , दोय हाथ म्ह बीणा गँवारा ने ज्ञान दान दे , कर दे छै परवीणा राजहंस री करे सँवारी , पुष्कर म्ह बिराजती ओ माँ भारती ... ओ माँ भारती कळम ने असी चाळ दे माँ करम ने अस्यो ढाळ दे माँ स्याही ने अस्यो रंग दे बरमाणी अेक - अेक मुद्दा पे, जावे रंग डारती ओ माँ भारती .. ओ माँ भारती दिलीप सिंह हाड़ा "हरप्रीत शशांक" कोटा, राजस्थान सरस्वती वंदना प्रकृति - राजस्थानी करूँ छू परणाम थने , ओ मां शारदे दे दे अस्यो बरदान , जीवण ने तार दे ज्ञान को म्हूँ दीयो जळाऊँ सुबे - शाम
Abhishek Rajhans
शीर्षक--कहीं बांकी नहीं मेरी दुनिया है .. अब मुझमे कहीं बांकी नहीं है ज़िन्दगी जो वो उनसे ही थी वो थे ज़िन्दगी वो दुनिया मेरे वो लम्हे जो बीते संग साथ उनके उन लम्हों में सिमटी ज़िन्दगी है मेरी उनके होने से होते थे आँखों में काजल माथे पर बिंदी होठों पे लाली पैरो में पायल मेरी दुनिया थे वो मेरी थे ज़िन्दगी मेरी ज़िन्दगी अब मुझमे कहीं बांकी नहीं… बांकी नहीं…—–अभिषेक राजहंस शीर्षक--कहीं बांकी नहीं मेरी दुनिया है .. अब मुझमे कहीं बांकी नहीं है ज़िन्दगी जो वो उनसे ही थी वो थे ज़िन्दगी वो दुनिया मेरे वो लम्हे जो बीते
Pnkj Dixit
🚩🇮🇳🚩 मनुष्य को राजहंस की तरह नीर-क्षीर विवेक करना चाहिए और जो उत्कृष्ठ है,उसी को हठपूर्वक ग्रहण करना चाहिए। जिस प्रकार सूर्य मे गर्मी और रोशनी दो गुण हैं उसी प्रकार सत्य में दो प्रवृत्तियों का समन्वय है एक यथार्थता,दूसरी मंगलोन्मुख न्यायनिष्ठ दूरदर्शिता। इन दोनों का समन्वय ही पूर्ण सत्य है, एकांगी तो अधूरा रहता है । जय श्री राम 🚩 ©Pnkj Dixit 🚩🇮🇳🚩 मनुष्य को राजहंस की तरह नीर - क्षीर विवेक करना चाहिए और जो उत्कृष्ठ है , उसी को हठ - पूर्वक ग्रहण करना चाहिए । जिस प्रकार सूर्य मे गर्
Pnkj Dixit
#OpenPoetry मनुष्य को राजहंस की तरह नीर - क्षीर विवेक करना चाहिए और जो उत्कृष्ठ है , उसी को हठ - पूर्वक ग्रहण करना चाहिए । जिस प्रकार सूर्य मे गर्मी और रोशनी दो गुण है , उसी प्रकार सत्य में दो प्रवृत्तियों का समन्वय है , एक - यथार्थता , दूसरी -- मंगलोन्मुख न्यायनिष्ठ दूरदर्शिता । इन दोनों का समन्वय ही पूर्ण सत्य है, एकांगी तो अधूरा रहता है । ।। जय श्री राम 🚩🕉️ ०२/०८/२०१९ 🌷👰💓💝 ...✍ कमल शर्मा'बेधड़क' मनुष्य को राजहंस की तरह नीर - क्षीर विवेक करना चाहिए और जो उत्कृष्ठ है , उसी को हठ - पूर्वक ग्रहण करना चाहिए । जिस प्रकार सूर्य मे गर्मी
Abhishek Rajhans
रावण... क्या मात्र एक शब्द है या एक व्यक्तितव जिसने छल से हरण किया था जिसने स्त्री के सतीत्व पर कुठाराघात किया था वो रावण.. कहाँ मरा है अभी तक जितने दशहरा पुतला फूंका उसका उतनी बार उठ खड़ा हुआ है अपने सहस्त्र शरीर में प्राण भर कर राम के वेश में अभिशाप बनकर रावण... वास्तव में एक शब्द नहीं एक व्यक्तित्व हीं है जिसे धारण कर लिया है आज के राम का स्वरुप जो नेस्तनाबूद करना चाहता है एक स्त्री के गौरव को बालिका के रूप में सकुचाई सीता को. बंद कमरे में सिसकती सीतायें भेद नहीं पा रही लक्ष्मण रेखा को अपने अस्तित्व को बचाने के लिए कैसे पुकारे राम को जब रावण ही हो राम के वेश में --अभिषेक राजहंस रावण... रावण… क्या मात्र एक शब्द है या एक व्यक्तितव जिसने छल से हरण किया था जिसने स्त्री के सतीत्व पर कुठाराघात किया था वो रावण..
Abhishek Rajhans
Abhishek Rajhans
ज़िन्दगी को तसल्ली किस बात की दूँ जिन्दगीं तसल्ली भर जी चुका हूँ अब और रब से मांगू क्या हाथ फैलाकर अब तो मुट्ठी बंद कर चुका हूँ अरमानो के कारवां के साथ कितना चलूँ अब चलते-चलते थक चुका हूँ बदनामियों के कालिखे और कितने लगाऊँ आज सुबह ही तो शक्ल धो चुका हूँ वक़्त अक्सर सिरहाने बैठकर बोलता है मुझसे कुछ और स्याही बहा दो अपनी कलम से मैं सारे किस्से तो ज़िन्दगी के लिख चुका हूँ अब और रंग कितने भरूं ज़िन्दगी में सारे बाल धूप में सफ़ेद कर चुका हूँ अब ख्वाब कोई नया कैसे बुनूं आँखों से ख्वाबो वाली नींद तोड़ चुका हूँ ज़िन्दगी को तसल्ली किस बात की दूँ अब मौत के इंतजार में ज़िन्दगी की करवट बदल चुका हूँ---अभिषेक राजहंस शीर्षक--ज़िन्दगी ज़िन्दगी को तसल्ली किस बात की दूँ जिन्दगीं तसल्ली भर जी चुका हूँ अब और रब से मांगू क्या हाथ फैलाकर अब तो मुट्ठी बंद कर चुका