Find the Latest Status about वाल्मीकि from top creators only on Nojoto App. Also find trending photos & videos about, वाल्मीकि.
Shaarang Deepak
Nathalal Gokalbhai
Shree Ram संसार से पार होने का एकमात्र उपाय ज्ञान है और सब दुखों का नाश आत्म अनुभव से होता है =योग वाशिष्ठ रामायण से ©Nathalal Gokalbhai #ऋषि वाल्मीकि रचित योग वाशिष्ठ रामायण में से कुछ बातें
Nathalal Gokalbhai
वाल्मीकि ऋषि रचित योग वाशिष्ठ रामायण जो बातें इस ग्रंथ में है वह और ग्रंथ में भी मिलेगी और जो इसमें नहीं है वह आपको कहीं नहीं मिलेगी ©Nathalal Gokalbhai #योग वाशिष्ठ रामायण वाल्मीकि ऋषि रचित
Rinku Tai
PRASAD
चूल्हा मिट्टी का मिट्टी तालाब की तालाब ठाकुर का । भूख रोटी की रोटी बाजरे की बाजरा खेत का खेत ठाकुर का । बैल ठाकुर का हल ठाकुर का हल की मूठ पर हथेली अपनी फ़सल ठाकुर की । कुआँ ठाकुर का पानी ठाकुर का खेत-खलिहान ठाकुर के गली-मुहल्ले ठाकुर के फिर अपना क्या ? गाँव ? शहर ? देश ? ©PRASAD #BehtiHawaa ठाकुर का कुआँ ।। ओमप्रकाश वाल्मीकि की
N S Yadav GoldMine
आज हम भगवान राम ने अपने वनवास के 14 वर्ष कहाँ-कहाँ बिताएं इसके बारें में विस्तार से जानेंगे !!💥💥{Bolo Ji Radhey Radhey} वनवास के 14 वर्ष कहाँ-कहाँ बिताएं :- 🔆 भगवान श्रीराम को चौदह वर्षों का कठोर वनवास मिला था जिसके अनुसार उन्हें केवल वनों में रहना था तथा किसी भी नगर में जाना प्रतिबंधित था। श्रीराम ने अपने वचन का भलीभांति पालन किया तथा चौदह वर्षों तक अपनी पत्नी सीता तथा भाई लक्ष्मण के साथ वनवासियों की भांति जीवन व्यतीत किया। इस दौरान वे भारत के उत्तरी तट से लेकर दक्षिणी तट तक गए। इसलिये आज हम भगवान श्रीराम के वनवास का मार्ग तथा इस दौरान वे कहाँ-कहाँ रुके और क्या-क्या कार्य किये, इसके बारें में विस्तार से जानेंगे। भगवान श्रीराम के वनवास का मार्ग :- तमसा नदी के तट पर :- 🔆 सबसे पहले अयोध्या से विदा लेने के पश्चात भगवान राम रथ में बैठकर आर्य सुमंत के साथ तमसा नदी के तट तक पहुंचे। वहां तक अयोध्या की प्रजा भी उनके साथ आयी जो उन्हें अकेले जाने देने को लेकर तैयार नही थी तथा उनके साथ चलने की जिद्द लिए बैठी थी। इसलिये उस रात श्रीराम ने अपना डेरा तमसा नदी के तट पर ही डाला तथा सूर्योदय से पहले अयोध्या की प्रजा को बिना जगाये सीता, लक्ष्मण तथा सुमंत के साथ कोशल देश की नगरी से बाहर निकल गए। श्रृंगवेरपुर नगरी :- 🔆 इसके पश्चात वे अपने मित्र निषादराज गुह की नगरी श्रृंगवेरपुर के पास के वनों में पहुंचे तथा वही एक दिन के लिए विश्राम किया। उनके मित्र गुह ने उनका बहुत आदर सत्कार किया। अगले दिन उन्होंने सुमंत को रथ लेकर अयोध्या लौट जाने का आदेश दिया तथा वहां से आगे पैदल ही यात्रा करने का निर्णय किया। फिर उन्होंने केवट के सहारे गंगा नदी को पार किया तथा उस पार कुरई गाँव उतरे। प्रयाग :- 🔆 गंगा पार करके श्रीराम माता सीता, लक्ष्मण तथा निषादराज गुह के साथ प्रयाग चले गए। वहां उन्होंने त्रिवेणी की सुंदरता को देखा तथा आगे मुनि भारद्वाज के आश्रम पहुंचे। यहाँ उन्होंने मुनि भारद्वाज से अपने रहने के लिए उत्तम स्थान पूछा जिन्होंने यमुना पार चित्रकूट को उत्तम बताया। चित्रकूट :- 🔆 इसके पश्चात श्रीराम ने अपने मित्र निषादराज गुह को भी वहां से वापस अपनी नगरी लौट जाने का आदश दिया तथा माता सीता व लक्ष्मण के साथ यमुना पार करके चित्रकूट चले गए। चित्रकूट पहुँचते ही उन्होंने वाल्मीकि आश्रम में उनसे भेंट की तथा गंगा की धारा मंदाकिनी नदी के किनारे अपनी झोपड़ी बनाकर रहने लगे। यही पर उनका भरत से मिलन हुआ था जब भरत अयोध्या के राजपरिवार, सभी गुरुओं, मंत्रियों के साथ श्रीराम को वापस लेने पहुंचे थे लेकिन श्रीराम ने वापस लौटने से मना कर दिया था। इसके कुछ समय पश्चात श्रीराम चित्रकूट भी छोड़कर चले गए थे क्योंकि उन्हें डर था कि अब अयोध्या की प्रजा यहाँ निरंतर आती रहेगी जिससे ऋषि मुनियों के ध्यान में बाधा पहुंचेगी। दंडकारण्य :- 🔆 दंडकारण्य के वनों में पहुंचकर सर्वप्रथम उन्होंने ऋषि अत्री तथा माता अनुसूया से उनके आश्रम में जाकर भेंट की। माता अनुसूया से माता सीता को कई बहुमूल्य रत्न, आभूषण तथा वस्त्र प्राप्त हुए। ऋषि अत्री से ज्ञान पाकर वे आगे बढ़ गए। इसके पश्चात उनका विराध राक्षस से सामना हुआ जिसका उन्होंने वध किया। तब वे शरभंग ऋषि से मिले जिनकी मृत्यु समीप ही थी। श्रीराम से भेंट के पश्चात ऋषि शरभंग ने अपने प्राण त्याग दिए तथा प्रभु धाम में चले गए। इसके पश्चात भगवान राम दंडकारण्य के वनों में घूम-घूमकर राक्षसों का अंत करने लगे। प्रभु श्रीराम ने अपने वनवास काल का ज्यादातर समय दंडकारण्य के वनों में ही बिताया था। जब दंडकारण्य के वनों में प्रभु श्रीराम ने अपने वनवास काल के 10 से 12 वर्ष बिता दिए तब उनकी भेंट महान ऋषि अगस्त्य मुनि से हुई। अगस्त्य मुनि ने श्रीराम को उनका अगला पड़ाव दक्षिण में गोदावरी नदी के किनारे पंचवटी में बनाने को कहा। अगस्त्य मुनि से आज्ञा पाकर श्रीराम पंचवटी के लिए निकल गए। पंचवटी :- 🔆 अब श्रीराम गोदावरी नदी के किनारे पंचवटी में अपनी कुटिया बनाकर रहने लगे जहाँ उनकी भेंट जटायु से हुई। जटायु उनकी कुटिया की रक्षा में प्रहरी के तौर पर तैनात रहते थे। इसी स्थल पर शूर्पनखा ने श्रीराम को देखा था तथा माता सीता पर आक्रमण करने का प्रयास किया था। तब लक्ष्मण ने उसकी नाक काट दी थी। तब उनका रावण के भाई खर व दूषण से युद्ध हुआ व श्रीराम ने उनका राक्षसी सेना समेत वध कर डाला। उसके कुछ समय पश्चात रावण ने अपने मामा मारीच की सहायता से माता सीता का अपहरण कर लिया। रावण ने उनकी सुरक्षा में तैनात जटायु का भी वध कर डाला। भगवान श्रीराम तथा लक्ष्मण माता सीता को ढूंढते हुए वहां से निकल गए। ©N S Yadav GoldMine #phool आज हम भगवान राम ने अपने वनवास के 14 वर्ष कहाँ-कहाँ बिताएं इसके बारें में विस्तार से जानेंगे !!💥💥{Bolo Ji Radhey Radhey} वनवास के 14 व
N S Yadav GoldMine
नारदजी विष्णु भगवान के परम भक्तों में से एक माने जाते हैं आइये विस्तार से जानिए !!🌲🌲 {Bolo Ji Radhey Radhey} नारद जयंती :- 🎻 नारदजी विष्णु भगवान के परम भक्तों में से एक माने जाते हैं। देवर्षि नारद मुनि विभिन्न लोकों में यात्रा करते थे, जिनमें पृथ्वी, आकाश और पाताल का समावेश होता था। ताकि देवी-देवताओं तक संदेश और सूचना का संचार किया जा सके। नारद मुनि के हाथ में हमेशा वीणा मौजूद रहता है। 🎻 उन्होंने गायन के माध्यम से संदेश देने के लिए अपनी वीणा का उपयोग किया। देवर्षि नारद व्यासजी, वाल्मीकि तथा परम ज्ञानी शुकदेव जी के गुरु माने जाते हैं। कहा जाता है कि नारद मुनि सच्चे सहायक के रूप में हमेशा सच्चे और निर्दोष लोगों की पुकार श्री हरि तक पहुंचाते थे। इन्होंने देवताओं के साथ-साथ असुरों का भी सही मार्गदर्शन किया। यही वजह है कि सभी लोकों में उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। नारद मुनि की जन्म कथा :- ब्रहमा के पुत्र होने से पहले नारद मुनि एक गंधर्व थे। पौराणिक कथाओं के अनुसार अपने पूर्व जन्म में नारद उपबर्हण नाम के गंधर्व थे। उन्हें अपने रूप पर बहुत ही घमंड था। एक बार स्वर्ग में अप्सराएँ और गंधर्व गीत और नृत्य से ब्रह्मा जी की उपासना कर रहे थे तब उपबर्हण स्त्रियों के साथ वहां आए और रासलीला में लग गए। यह देख ब्रह्मा जी अत्यंत क्रोधित हो उठे और उस गंधर्व की श्राप दे दिया कि वह शूद्र योनि में जन्म लेगा। 🎻 बाद में गंधर्व का जन्म एक शूद्र दासी के पुत्र के रूप में हुआ। दोनों माता और पुत्र सच्चे मन से साधू संतो की सेवा करते। नारद मुनि बालक रुप में संतों का जूठा खाना खाते थे जिससे उनके ह्रदय के सारे पाप नष्ट हो गए। पांच वर्ष की आयु में उनकी माता की मृत्यु हो गई। अब वह एकदम अकेले हो गए। 🎻 माता की मृत्यु के पश्चात नारद ने अपना समस्त जीवन ईश्वर की भक्ति में लगाने का संकल्प लिया। कहते हैं एक दिन वह एक वृक्ष के नीचे ध्यान में बैठे थे तभी अचानक उन्हें भगवान की एक झलक दिखाई पड़ी जो तुरंत ही अदृश्य हो गई। इस घटना के बाद उस उनके मन में ईश्वर को जानने और उनके दर्शन करने की इच्छा और प्रबल हो गई। तभी अचानक आकाशवाणी हुई कि इस जन्म में उन्हें भगवान के दर्शन नहीं होंगे बल्कि अगले जन्म में वह उनके पार्षद के रूप उन्हें पुनः प्राप्त कर सकेगें। 🎻 समय आने पर यही बालक(नारद मुनि) ब्रह्मदेव के मानस पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुए जो नारद मुनि के नाम से चारों ओर प्रसिद्ध हुए। देवर्षि नारद को श्रुति-स्मृति, इतिहास, पुराण, व्याकरण, वेदांग, संगीत, खगोल-भूगोल, ज्योतिष और योग जैसे कई शास्त्रों का प्रकांड विद्वान माना जाता है। N S Yadav..... नारद जयंती उत्सव और पूजा विधि :- 🎻 नारद मुनि भगवान विष्णु को अपना आराध्य मानते थे। उनकी भक्ति करते थे इसलिए नारद जयंती के दिन भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी का पूजन करें। इसके बाद नारद मुनि की भी पूजा करें। गीता और दुर्गासप्त शती का पाठ करें। इस दिन भगवान विष्णु के मंदिर में भगवान श्री कृष्ण को बांसुरी भेट करें। अन्न और वस्त्रं का दान करें। इस दिन कई भक्त लोगों को ठंडा पानी भी पिलाते हैं। 🎻 ऋषि नारद आधुनिक दिन पत्रकार और जन संवाददाता का अग्रदूत है। इसलिए दिन को पत्रकार दिवस भी कहा जाता है और पूरे देश में इस रूप में मनाया जाता है। उन्हें संगीत वाद्य यंत्र वीना का आविष्कारक माना जाता है। उन्हें गंधर्व के प्रमुख नियुक्त किया गया है जो दिव्य संगीतकार थे। उत्तर भारत में इस अवसर पर बौद्धिक बैठकें, संगोष्ठियों और प्रार्थनाएं आयोजित की जाती हैं। इस दिन को आदर्श मानकर पत्रकार अपने आदर्शों का पालन करने, समाज के लोगों के प्रति दृष्टिकोण और जन कल्याण की दिशा में लक्ष्य रखने का प्रण करते हैं। ©N S Yadav GoldMine #boat नारदजी विष्णु भगवान के परम भक्तों में से एक माने जाते हैं आइये विस्तार से जानिए !!🌲🌲 {Bolo Ji Radhey Radhey} नारद जयंती :- 🎻 नारदजी वि
N S Yadav GoldMine
माता सीता को मां लक्ष्मी का अवतार माना जाता है, आइये विस्तार से जानिए !!🍀🍀 {Bolo Ji Radhey Radhey} सीता नवमी :- 🌹जब महाराजा जनक संतान प्राप्ति की कामना से यज्ञ की भूमि तैयार करने के लिए हल से भूमि जोत रहे हैं तो उस समय धरती से एक बच्ची प्राकट्य हुई। जिन्हें सीता नाम से जाना जाता है। इसी कारण हर साल सीता माता के जन्मोत्सव के रूप में इस दिन को सीता नवमी या फिर जानकी जयंती के नाम से जाना जाता है। इस दिन का महत्व काफी अधिक है। माना जाता है कि सीता नवमी के दिन पूजा पाठ और दान पुण्य करने स हर तरह के कष्टों से छुटकारा मिल जाता है. सीता नवमी पूजा विधि :- 🌹सीता नवमी के दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर सभी कामों ने निवृत्त होकर स्नान कर लें। इसके बाद साफ कपड़े धारण कर लें। अब पूजा घर या फिर साफ जगह पर एक लकड़ी की चौकी रखकर लाल या फिर पीले रंग का कपड़ा बिछा दें। इसके बाद इसमें माता सीता-रात की मूर्ति या फिर राम दरबार की तस्वीर विराजित कर दें। इसके बाद पूजन शुरू करें। सबसे पहले फूल के माध्यम से जल अर्पित करें। 🌹इसके बाद लाल या पीले रंग के फूल और माला चढ़ाएं। माता सीता को सिंदूर और भगवान राम को पीला चंदन लगा दें। इसके बाद अपने अनुसार भोग लगाकर घी का दीपक और धूप जलाएं। अब मां सीता का स्मरण करते हुए श्री सीतायै नमः और श्री सीता-रामाय नम: मंत्र का जाप करें। अंत में विधिवत तरीके से आरती करते हुए भूल-चूक के लिए माफी मांग लें। सीता नवमी का महत्व :- 🌹माता सीता को मां लक्ष्मी का अवतार माना जाता है. इसलिए माता सीता की पूजा करने से मां लक्ष्मी खुद-ब-खुद प्रसन्न हो जाती हैं, जिन्हें धन की देवी भी कहा जाता है. सीता नवमी पर सच्चे मन से मां सीता की उपासना करने वालों के घर में कभी धन की कमी नहीं रहती है. ऐसी भी मान्यताएं हैं कि माता सीता की पूजा-पाठ से रोग और पारिवारिक कलह से मुक्ति मिल सकती है। सीता नवमी कथा :- 🌹भगवान राम को विष्णुजी का अवतार माना जाता है। इसी तरह मां सीता को लक्ष्मी का अवतार माना जाता है। वाल्मीकि रामायण में मां सीता के धरती पर प्रकट होने का जिक्र मिलता है। कहते हैं कि एक बार मिथिला देश में भयंकर अकाल पड़ा। उस समय देश के राजा जनक हुआ करते थे। अकाल से मिथिला की प्रजा भूखी मरने लगी। राजा जनक इससे व्यथित हो गए। 🌹वे एक महान ऋषि के पास गए। उन्होंने अकाल से छुटकारा पाने के लिए उपाय बताने को कहा। ऋषि ने राजा जनक से कहा कि वे यज्ञ कराएं और यज्ञ भूमि पर हल जोतें। उनकी समस्या का निवारण हो जाएगा। ऋषि के कहे अनुसार राजा जनक ने यज्ञ भूमि पर हल चलाया। 🌹जैसे ही हल की नोक जमीन में गई, तो कुछ बजने की आवाज आई। राजा जनक ने मिट्टी हटाई तो जमीन से आकर्षक संदूक निकली। राजा ने जब संदूक खोली तो उसमें एक छोटी बच्ची नजर आई। राजा जनक के कोई संतान नहीं थी। वह लंबे समय से संतान प्राप्ति के लिए कई बार देवों की पूजा-अर्चना की थी। उन्होंने संदूक से निकली बच्ची को अपनी पुत्री के रूप में अपना लिया। 🌹हल से जोती हुई जमीन को सीता कहते हैं, इसलिए राजा जनक ने बच्ची का नाम सीता रखा। वही सीता आगे चलकर श्रीराम की पत्नी बनीं। जिस दिन सीता का प्राकट्य हुआ था, उसे सीता नवमी के रूप में मनाया जाता है। इसे जानकी नवमी भी कहते हैं। ©N S Yadav GoldMine #You&Me माता सीता को मां लक्ष्मी का अवतार माना जाता है, आइये विस्तार से जानिए !!🍀🍀 {Bolo Ji Radhey Radhey} सीता नवमी :- 🌹जब महाराजा जनक
N S Yadav GoldMine
आज हम माता त्रिजटा के बारें में जानेंगे त्रिजटा कौन थी व उसको माता सीता से सहानुभूति क्यों थी !! 🌇🌇 {Bolo Ji Radhey Radhey} त्रिजटा कौन थी :- 🌰 त्रिजटा रावण की नगरी में एक ऐसी राक्षसी थी जिसका जन्म तो राक्षस कुल में हुआ था लेकिन उसका हृदय देवियों के समान पवित्र था। वह रावण को दुष्ट व पापी समझती थी व भगवान विष्णु में विश्वास रखती थी। रावण के द्वारा माता सीता का अपहरण किये जाने के पश्चात उसे अशोक वाटिका में रखा गया था जहाँ माता त्रिजटा को ही उनकी सुरक्षा का उत्तरदायित्व सौंपा गया था। उस समय उसने अपनी बुद्धिमता के साथ माता सीता को संभाला था। त्रिजटा का जन्म :- 🌰 त्रिजटा के जन्म के बारें में वाल्मीकि रामायण व तुलसीदास की रामचरितमानस में तो नही बताया गया है लेकिन कुछ अन्य भाषाओँ में त्रिजटा के बारें में भिन्न-भिन्न विवरण सुनने को मिलते हैं। सबसे प्रमुख मान्यता के अनुसार त्रिजटा को रावण के छोटे भाई विभीषण व उनकी पत्नी सरमा की पुत्री बताया गया हैं। कुछ अन्य रामायण में त्रिजटा को रावण व विभीषण की बहन के रूप में दर्शाया गया है। किसी भी बात को प्रमाणिक तौर पर नही कहा जा सकता लेकिन यह निश्चित है कि उसका जन्म एक राक्षस कुल में हुआ था फिर भी उसके अंदर राक्षसी प्रवत्ति के गुण नामात्र थे। वह हमेशा माता सीता की सच्ची मित्र के रूप में याद की जाती है। अशोक वाटिका में माता सीता की अंगरक्षक की भूमिका :- 🌰 जब रावण छल के द्वारा माता सीता को पंचवटी से अपने पुष्पक विमान में उठाकर ले आया तो उसने माता सीता को अशोक वाटिका में रखा। रावण के द्वारा माता त्रिजटा को ही सीता की सुरक्षा सौंपी गयी व सभी राक्षसियों का प्रमुख बनाया गया। रामायण में त्रिजटा की भूमिका भी यही से शुरू हुई थी जिसमे उन्होंने स्वयं के चरित्र को ऐसा दिखाया जिससे वह आमजनों के दिल में हमेशा के लिए बस गयी। माता सीता की दुःख की साथी :- 🌰 जब माता सीता रावण के द्वारा अपहरण कर लंका में लायी गयी तब वह अत्यंत विलाप कर रही थी। साथ ही अशोक वाटिका में अन्य राक्षसियां उन्हें तंग कर रही थी। यह देखकर त्रिजटा ने अपनी बुद्धिमता से बाकि राक्षसियों को चुप करा दिया था व माता सीता को ढांढस बंधाया था। त्रिजटा के कारण ही माता सीता को उस राक्षस नगरी में रहने की शक्ति मिली व उनका विलाप कम हुआ थ माता सीता की गुप्तचर :- 🌰 वैसे तो माता त्रिजटा रावण की सेविका थी लेकिन वह भगवान श्रीराम की विजय में विश्वास रखती थी। उसनें अपने व माता सीता के बीच के संबंधों को जगजाहिर नही होने दिया किंतु हर पल वह माता सीता को हर महत्वपूर्ण जानकारी देती थी जैसे कि लंका का दहन होना, समुंद्र पर सेतु बनना, राम लक्ष्मण का सुरक्षित होना इत्यादि। त्रिजटा के द्वारा समय-समय पर माता सीता को जानकारी देते रहने से उनकी हिम्मत बंधी रहती थी। रावण के अंत के बाद माता त्रिजटा :- 🌰 अंत में भगवान श्रीराम व दशानन रावण के बीच भयंकर युद्ध हुआ व उसमें रावण मारा गया। इसके पश्चात विभीषण को लंका का अधिपति बनाया गया व उन्होंने तुरंत माता सीता को मुक्त करने का आदेश जारी कर दिया। त्रिजटा माता सीता के जाने से तो दुखी थी लेकिन प्रसन्न भी थी कि अब सब विपत्ति टल गयी। अग्नि परीक्षा के बाद जब माता सीता भगवान श्रीराम के पास आई तब उन्होंने माता त्रिजटा के वात्सल्य व प्रेम के बारे में उन्हें बताया। यह सुनकर सभी बहुत खुश हुए व भगवान राम व माता सीता ने त्रिजटा को इतने पुरस्कार दिए कि अब जीवनभर उन्हें कुछ करने की आवश्यकता नही थी। साथ ही त्रिजटा को लंका में भी विभीषण के द्वारा अहम उत्तरदायित्व व उचित सम्मान दिया गया। कुछ मान्यताओं के अनुसार माता त्रिजटा भगवान राम व माता सीता के साथ पुष्पक विमान में बैठकर अयोध्या भी आई थी व कुछ दिनों तक उनके साथ रही थी। कुछ रामायण में लंका विजय के बाद यह बताया गया है कि विभीषण ने भगवान हनुमान से अनुरोध किया था कि वे उनकी बेटी त्रिजटा से विवाह कर ले। इसके बाद हनुमान ने त्रिजटा से विवाह किया जिन्हें उन्हें एक पुत्र तेगनग्गा प्राप्त हुआ। कुछ समय तक वहां रहने के पश्चात हनुमान वहां से चले गए। ©N S Yadav GoldMine #boat आज हम माता त्रिजटा के बारें में जानेंगे त्रिजटा कौन थी व उसको माता सीता से सहानुभूति क्यों थी !! 🌇🌇 {Bolo Ji Radhey Radhey} त्रिजटा क