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MD Shahadat
मै एहसासो सा नायाब हुँ, मै इक नई पहचान हुँ मै हुँ जो है पंख लिए, मै ख्वाहिशों की उड़ान हुँ मै हु विफलताओं से भरा, मै फिर भी इक गुमान हुँ इस विशाल से कायनात में, मै तिनके के समान हुँ सकेरों की भीड़ में, मै कहीं गुमनाम हुँ मेरी जिंदगी के किताब मे, मै खुद की ही पहचान हुँ मै हू खूबियों से भरा, पर कुछ खामियां मुझमे भी है मैंने ठोकरों से है ली सबक, पर नादानियां मुझमे भी है मै हुँ वफा और दर्द भी, मैं भोर हुँ खुदगर्ज़ भी मै रास्तों का हुँ इक सबक, मै कोहिनूर सा नायाब हुँ जो रूह मे समा सकूँ, मै उस वफा का जवाब हुँ मालूम नही हुँ कौन मै, मै खुद मे ही लाजवाब हुँ जो पढ़ सको तो पढ़ो मुझे, मै एक खुली किताब हुँ ©MD Shahadat #poems and #shayri by #mdshahadat #kavida #zindagi
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read moreसाहित्य संजीवनी
White हैं बतौर ये लोग तमाम इन के साँचे में न ढलो मैं भी यहाँ से भाग चलूँ तुम भी यहाँ से भाग चलो -हज़रत जौन एलिया ©साहित्य संजीवनी #Emotional_Shayari #Poetry #Nojoto #Hindi #urdu #poems
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read moreEzha Valavan
White timeless poems by rabindranaththakur...😇🙃 ©Ezha Valavan #timelesstruth #poems #Emotional
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read morePrakash Vidyarthi
White "गरीबों के फल " बाढ़ और फसल ।।।।।।।।।।।।।।::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::।।।।।।।।।।।। चित्र में तेरे चेहरे की चंचलता देखकर इस वीरान सी जंगल में नाव खेकर मुझे मरुस्थल की जहाज़ याद आती हैं। मगरूर बेशर्म ज़माना में भी मुझे झूलती नैया ठिठूरती कापती नंगी वृद्ध बदन में भीं एक बेमिसाल ऊर्जा भरी तेरी यौवन्ता भाती हैं।। किसी को लगता है समझ नादानी हैं ये नई जवानी है नई रवानी हैं उमंग भी सयानी हैं । पर कोई क्या जानें ये बुढ़ापे की निशानी हैं कहानी हैं जोश पुरानी हैं ,पेशा खानदानी हैं ।। चारों तरफ बाढ़ बरसात का भरा पानी - ही- पानी हैं दिखता फिर आप ये दुःख कैसे वहन करते हों। आजू बाजू झाड़ीयों में चुभते कांटों के बीच झकझोरती असहनीय पछुआ हवाएं ये सब कैसे सहन करते हों ।। मलिन सा मुख पर तेजता जिगर में साहस और निडरता। चूंगते तोड़ते हुए फलों और पेड़ के पत्तों को निहारता।। बरबाद न हों जाय कहीं सालों की ये कच्ची जमा पूंजी इसलिए शायद कभी कभी ये बात खुद से विचारता।। कड़कती बिजली से भीं भयमुक्त परिवार को भरण पोषण करनेवाले मेंहनतयुक्त आप वीर ही नहीं महावीर लगे। अपने बागों के रखवाले ऐसी बेरहम बेदर्द मौसम में भीं फलचुनने वाले हे दीन महापुरुष आप अधीर लगे।। न खुद की फिकर तुम्हें न ख़ुद की रहतीं कोई खबर कैसे करते हों इतने कठिन काम ये हैं आराम की उमर। आता भीं नहीं बाबा कहीं आपको विषैले जीवजन्तु नज़र। झाँकता हूं जब तेरे अंदर बड़ा मुुश्किल है तेरा गुजर बसर।। मालूम है हमें की तुम ये पके अमरूद खाओगे नहीं। बेच आओगे सस्ते दामों पर बाजारों में शर्माओगे नहीं। तरुवर फल नहीं खात हैं पंक्ति जचता हैं तुम्हारे ऊपर। स्वयं भूखे रह जाओगे किन्तु एक आह तक नहीं करोगे सहोगे ख़ुद कष्ट ओर किसी को कुछ बताओगे भीं नहीं।। कभी कभार हमे मोह लगता हैं तेरी बदनसीबी देखकर धुंधली लकीरी देखकर तरस आता हैं तेरी मशुमियता पर। क्या गरीबों की गरीबी बेची नहीं जा सकती क्या अमीरी खरीदी नहीं जा सकती।। क्या दरिद्रता का कोई मोल नहीं क्या धनवानों के बाजारों में इसका कुछ नहीं शक्ति कोई भटके बंजारे जैसे वन वन को ,शर्म आता है सोचकर आदमी की अदमीयता पर । क्या फलविक्रेता की दुर्दिन व्यथित दशा फलखाने वाले साहब को समझ नहीं आती।। स्वरचित -, प्रकाश विद्यार्थी ©Prakash Vidyarthi #sad_shayari #poetylover #poems #कविताएं #थॉट्स #ThoughtsOfTheDay
Author Rupesh Singh
White चैत्रे नवम्यां प्राक् पक्षे दिवा पुण्ये पुनर्वसौ ।उदये गुरुगौरांश्चोः स्वोच्चस्थे ग्रहपञ्चके ॥मेषं पूषणि सम्प्राप्ते लग्ने कर्कटकाह्वये ।आविरसीत्सकलया कौसल्यायां परः पुमान् ॥ ©R. k. singh #ramnavmi #jai_shree_ram Ashish Singh Sanju Singh Adarsh Thakur pratibha Singh thakur Jagsir Singh
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