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DR. SANJU TRIPATHI
भारत देश का अन्नदाता है किसान, फिर भी नहीं मिलती है उसको कोई पहचान। फसलें उगाने को कर्ज के बोझ तले दबा रहता है, फिर भी बनते हैं सभी अनजान। कर्ज के बोझ से उबरने को कुछ फांसी लगा लेते, कुछ करते आत्महत्या पर विचार। अन्नदाता स्वयं ही मचाता रहता है हाहाकार, मगर कोई सुनता नहीं है उसकी पुकार। मजबूर किसानों से बिचौलिए कमाते हैं पैसा, करके उनकी फसलों का व्यापार। भूखे रहकर औरों को भोजन पहुंचाते, झेलते सूखे और बाढ़ के मौसम की मार। देते हैं सभी नेता और सरकार झूठी दिलासा समझता नहीं कोई किसानों की पीड़ा। बातें करते हैं सभी बड़ी-बड़ी मगर इनके लिए कोई उठाता नहीं ठोस कदम ना बीड़ा। कोई सुनता नहीं किससे कहें अपना हाल-ए-दिल और किसको सुनाएं अपनी व्यथा। विपरीत परिस्थितियों में भी बांधे रहते हैं आस, सरकार भी ना करती कोई व्यवस्था। 🌠💠𝐂𝐡𝐚𝐥𝐥𝐞𝐧𝐠𝐞 - 𝟐💠🌠 #𝐜𝐨𝐥𝐥𝐚𝐛_𝐰𝐢𝐭𝐡_𝐚𝐚𝐩𝐤𝐢_𝐥𝐞𝐤𝐡𝐧𝐢 आज की रचना के लिए हमारा शब्द है 🎈📥 ⬇🔻⬇🔻⬇🔻 ⬇ 🔻⬇ 🔻⬇ 🎀किसानों की पीड़ा! 🎀 🎗🎗🎗🎗🎗🎗🎗🎗
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हलदर हूं मैं, परिश्रमिक भी हूं, अन्नदाता कहलाता हूं, फिर भी मुफलिस समझ कर, नाकिदीन होती है मेरी। खुली आंखो से अज्ग़ासे अहलाम देख रहे है, अब तक तो सिर्फ गम-ओ-जुल्मत मिला है। लफ्जों के कारोबार में ज़दा और मुरझा गया हूं, मैं ताल्लुक चाहता था, तुमने तो जुल्मत दिखा दी। धरती की धरोहर कभी भू-धर भी कहा जाता है, मेरी कठिनाइयों से सब मुतआरिफ है। पल-पल मेहनत कर में मैं उम्मीद बोता हूं, बीजारोपण करके तस्कीन होता हूं, लोग अनाज का मसीहा माने मुझे, पर अपनी हालत पर मैं खुद रोता हूं। फसल मेरी बच्चे जैसी देख बढ़ता उसे, खुशी से प्रफुल्लित होता हूं पासबाँ बन, पिता समान उनकी रक्षा करता हूं। हलदर हूं मैं, परिश्रमिक भी हूं, अन्नदाता कहलाता हूं, फिर भी मुफलिस समझ कर, नाकिदीन होती है मेरी। खुली आंखो से अज्ग़ासे अहलाम देख रहे है, अब तक तो सिर्फ गम-ओ-जुल्मत मिला है। लफ्जों के कारोबार में ज़दा और मुरझा गया हूं, मैं ताल्लुक चाहता था, तुमने तो जुल्मत दिखा दी।
हलदर हूं मैं, परिश्रमिक भी हूं, अन्नदाता कहलाता हूं, फिर भी मुफलिस समझ कर, नाकिदीन होती है मेरी। खुली आंखो से अज्ग़ासे अहलाम देख रहे है, अब तक तो सिर्फ गम-ओ-जुल्मत मिला है। लफ्जों के कारोबार में ज़दा और मुरझा गया हूं, मैं ताल्लुक चाहता था, तुमने तो जुल्मत दिखा दी।
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