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Ramesh Singh

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Ramesh Singh

#रमेश

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Ramesh Singh

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Ramesh Singh

जाने मुझको  किसकी  यादें आती है तन्हाई में।
मेरा   कोई   पीछा   करता  है  मेरी  परछाई में।।
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चाँद  सितारों  तक  जाते है जाने वाले जाने दो।
मुझको अपनी कब्र बनाकर जाना है गहराई में।।
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दुनियांदारी से हम जैसे लोगों को क्या मतलब।
रहने  वाले  रहते  होंगें  दुनिया  की  रानाई में।।
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जानें कैसी कैसी यादें रह रहकर के उठती है।
जैसे  कोई  दरवाज़े से झाँकता हो पुरवाई में।।
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आख़िर सच्ची सच्ची बातों से भी क्या कुछ होना है।
ज़िंदा रहकर मर जाना है क्या है सब सच्चाई में।।
#रमेश

©Ramesh Singh

Ramesh Singh

#रमेश

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लाऊंगा वक़्त मोड़ के अपनी उड़ान का।
नक़्शा  बना लिया  है मैंने आसमान का।।
#रमेश

©Ramesh Singh

Ramesh Singh

निग़ाहों   से  लहू  टपका  रहा  हूँ   और   ये  क़िस्मत।
मुझे हर  बार  नाहक़   में   सताकर   तंग   करती  है।।
मैं  अपनी  बेबसी  पर   रो   रहा   हूँ  और  ये  दुनियां।
मेरी   इस   बेबसी   पर  हर  तरह के तंज  करती है।।

परिंदों   की   तरह  घर  से  निकलता  हूँ  फ़ज़ाओं  में।
तो मुझको तीर आ कर के किसी तरकश का लगता है।।
मैं   अपने   आप   को जब  देखता  हूँ तो क्या पाता हूँ।
कोई   इंसान   जैसे   टूटकर   बेबस    सा   लगता  है।।
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पुरानी    दास्तानों    का     हवाला   दे   रहा   हूँ  पर।
मेरे  जख्मों  को  कोई  अब  कहाँ  शादाब  करता है।।
शब-ए-हिज्रां के नग्मों का असर   दिखने लगा है अब।
कोई  लहज़ा  यूँ  ही  अपना  नहीं   तेज़ाब   करता  है।।
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मुनासिब   है  कि  मेरे   बाद  का  मंज़र   सुहाना हो।
मगर  मैं  इस  तरह  के  कोई  वादे कर नहीं सकता।।
मुझे   मालूम   है   हर   रास्ता    लेकिन   मैं  क़ैदी  हूँ।
रिहा  होकर  मैं  दुनियां से यक़ीनन लड़ नहीं सकता।।
#रमेश

©Ramesh Singh

Ramesh Singh

मेरे  दिल  पर  रोज़ कटारी चलती है।
धीरे  धीरे   दुनिया-दारी   चलती   है।।
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कहने  को है ज़िस्म  हमारा  ज़िंदा पर।
देखों  कैसे  लाश  हमारी   चलती  है।।
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सारे    प्यादे    मरते   है  रफ़्ता रफ़्ता।
रानी घर  से  अपनी  बारी  चलती  है।।
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मेरी  बातें   लगती  है,  झूटी  सबको।
इस दुनियां में सिर्फ़ तुम्हारी चलती है।।
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छोड़ने   वाले  साथ  नहीं  जा पाते है।
ऐसा  झटका  देकर  गाड़ी  चलती है।।
,
ख़ून से लतपथ मैं भी अक्सर होता हूँ।
पेड़  पे  जैसे  जैसे  आरी  चलती  है।।
#रमेश

©Ramesh Singh

Ramesh Singh

#रमेश

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मुझे  अफ़सोस  है मैं ज़िंदगी से लड़ नहीं पाया।
अकेला पड़ गया था मैं किसी से लड़ नहीं पाया।
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मुझे  मालूम था दो चार दिन तक मौत टलती पर।
मगर मैं इक अदद छोटी घड़ी से लड़ नहीं पाया।।
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कोई भी  राह मंज़िल तक मुझे लेकर नहीं आई।
इसी वहशत के मारे मैं ख़ुदी से लड़ नहीं पाया।।
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बहाने   बन   तो  सकते  है  समंदर के किनारे हूँ।
लेकिन मैं सच में अपनी तिश्नगी से लड़ नहीं पाया।।
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रसोई  घर नहीं चलती है लफ़्ज़ों के मरासिम से।
मैं भूका था तो खाली तश्तरी से लड़ नहीं पाया।।
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ग़ज़ल  को  सींचता  हूँ  रोज़ अपना मैं लहूँ देकर।
लेकिन देखो तो मैं भी शाइरी से लड़ नहीं पाया।।
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किसी  से  क्या  कहूँ  ऐसा अंधेरा ज़िंदगी में था।
मैं बाहर दिख रही इक रौशनी से लड़ नहीं पाया।
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उसूलों पर रहा कायम मैं अपने जीते जी साहिल।
मगर मैं ज़िंदगी भर मुफ़्लिसी से लड़ नहीं पाया।।
#रमेश

©Ramesh Singh

Ramesh Singh

ऐसा  नहीं   कि  दिल  में कोई गम नहीं रहा।
लेकिन वो दर्द-ए-हिज्र का आलम नहीं रहा।।
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मरने  पे   मेरे  लोग   सारे  रो   रहे  थे   पर,
गुज़रा तो वक़्त घर  में  भी मातम नहीं  रहा।।
#रमेश

©Ramesh Singh #eveningtea

Ramesh Singh

हमने   तो  हार मान ली है मुफ़लिसी मगर।
बच्चों  को  तुम  रुला  रही हो ठीक नहीं है।।
#रमेश
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