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Ajay Kumar Dwivedi

विषय - धड़कन 

दिल   धड़कता  मेरा  है  उसे  देखकर।
दिल की धड़कन है वो जिन्दगी है मेरी।

साथ उसके ये जीवन हसीं है बड़ा। 
सांसों  में वो बसी हर खुशी है मेरी।

एक पल के लिए दूर हो ना कभी। 
पास  हरदम  रहे  आरजू  है मेरी। 

सांसों में मैं उसे ही बसा कर रखूं। 
वो  मेरा  प्यार  है  बंदगी  है  मेरी। 

अजय कुमार द्विवेदी ''अजय''

©Ajay Kumar Dwivedi #अजयकुमारव्दिवेदी धड़कन

Ajay Kumar Dwivedi

#अजयकुमारव्दिवेदी शीर्षक - एक प्रश्न #India #कविता

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शीर्षक - एक प्रश्न 
एक  प्रश्न  है   पूछना   मुझको, भारत  के  वाशीन्दों  से।
क्यूँ   भारत बारम्बार जला है, घर  के  ही  जयचन्दों  से।
क्यूँ जात पात का भेद दिखा कर, देश जलाया जाता है। 
क्यूँ   हम  बाहर  नहीं  निकलते, इन  झूठे  पाखण्डों  से। 
क्यूँ  भूखी  झोपड़ियों से, बस आह सुनाईं देती है।
क्यूँ  भारत के फूटपातों पर, कराह सुनाईं देती है।
वर्ष पचहत्तर बीत चुके हैं, आजादी को मिले हुए।
अब  भी  क्यूँ  गरीबों की, चित्कार सुनाईं देती हैं।
हम सब में है सामर्थ कि हम, भूखों का पेट भर सकते हैं।
तन   ढ़कने   को   बेचारों   को, वस्त्र   दान   दे सकते हैं।
नहीं  नया  तो  अपने  तन का, उतरन उनकों पहना कर।
मैले   कुचैलै   फटे  नंगे, तन   को   हम  ढ़क  सकतें  हैं। 
फिर  भी  क्यूँ  हम  गिरे हुए हैं, बाबाओं के चरणों में। 
क्यूँ    एक    नहीं  होतें  हम, बटे  हैं  लाखों  वर्णों  में।
बरसों   से  वो  लूट  रहे  हैं, जात  धर्म  के  नाम  हमें। 
बतलाओं कोईं अंतर मुझकों, दलितों और सवर्णों में।
क्यूँ  हमकों  दया नहीं आती अब, दीन दुखियों की आहों।
क्यूँ हम नमक छिड़कते है बस, दीन दुखियों के घावों पर।
कहीं  गरीबी  तिरस्कार, तो  कहीं  उपहास  को सहती है।
क्यूँ   हम   ध्यान   नहीं   देते   हैं, भूखी  उन  कराहों  पर। 
इस    घिनौनी    परम्परा    का, मैं    हकदार   किसे   लिख्खूं।
भूख  से  व्याकुल  रोते  बच्चों  पर, मैं  धिक्कार किसे लिख्खूं। 
खुद को लिख्खूं तुमकों लिख्खूं, या फिर बोलों उसको लिख्खूं।
आखिर  कौन  है   दोषी  इसका, मैं  जिम्मेदार  किसे  लिख्खूं।
क्या  राम  राम  चिल्लाने  से  ही, राम  राज्य  आ जायेगा।
बिना  अन्न  के  किसी  गरीब  का, कहों  पेट भर जायेगा।
राम  राज्य  में सबकों ही तो, एक समान हक मिलता था। 
कहों हमारा समाज भला क्या, गरीबों का हक दे पायेगा।
राम  राज्य  यदि  लाना  है  तो, खाली  पेट  भरना होगा।
किसी बेटी का फटा हुआ, आँचल हमकों सीलना होगा।
सत्ता   का   क्या  सत्ता  तो  बस, आयेगी  और जायेगी।
भारत  को  यदि  बचाना  है, श्री कृष्ण हमें बनना होगा।
अजय कुमार द्विवेदी ''अजय''

©Ajay Kumar Dwivedi #अजयकुमारव्दिवेदी शीर्षक - एक प्रश्न 

#India

Ajay Kumar Dwivedi

#अजयकुमारव्दिवेदी शीर्षक - मुस्कुराना चाहिए। #कविता

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शीर्षक - मुस्कुराना चाहिए। 
गम  हो  या  खुशी  हो मुस्कुराना चाहिए।
जब तक न टूटे सांस जिए जाना चाहिए।
हो  समय   चाहें   कठिन  कितना  सुनों।
तूफान  में भी दिया इक जलाना चाहिए। 
मिलती नहीं  ये  जिन्दगी  खैरात  में कभी। 
मुस्किल में हो जो ज़िन्दगी बचाना चाहिए।
यहां अपने  लिए आंसू तो बहाते  है सभी। 
गैरों  के  दर्द  पे  भी  आंसूं  आना चाहिए। 
जताते हो जिस तरह से सदा अपनी खुशी को। 
गैरों   की   खुशी   को  भी  तो  जताना चहिए। 
सोचते    हो    जिस    तरह    से    अपने  तुम। 
गैरों   के   लिए   वो  ही  नज़र  आना  चाहिए। 
गम  हो  या  खुशी  हो मुस्कुराना चाहिए।
जब तक न टूटे सांस जिए जाना चाहिए।
अजय कुमार द्विवेदी ''अजय''

©Ajay Kumar Dwivedi #अजयकुमारव्दिवेदी शीर्षक - मुस्कुराना चाहिए।

Ajay Kumar Dwivedi

#अजयकुमारव्दिवेदी शीर्षक - लगता सच में ही पागल हूँ मैं। #कविता

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शीर्षक - लगता सच में ही पागल हूँ मैं। 

कोईं पागल कोईं भूलक्कड़, कोईं हिटलर कहता हैं।
दिल को वहीं दुखाता है, जो दिल के भीतर रहता है।
जीवन की इस उधेड़ बूँद में, ऊलझ गया हूँ मैं यारों।
एकांत मुझे जब मिलता है, आँखों से आंसूं बहता है।
सोच रहा हूँ आखिर क्यूँ, और क्या मैं गल्ती करता हूँ।
चारों ओर हैं अपने मेरे, फिर क्यूँ अकेला रहता हूँ।
समझ नहीं आता है मुझको, उत्तर कहाँ से लाऊं मैं।
सब तो बहते हैं एक दिशा में, फिर क्यूँ बिपरीत मैं बहता हूँ।
लगता सच में ही पागल हूँ मैं, सभी ठीक तो कहते हैं।
अकेला केवल रहता हूँ मैं, बाकी सब मिलकर रहते हैं। 
नहीं फिकर है किसी की मुझको, सबको मेरी चिंता हैं। 
मेरे कारण ही तो सबके सब, भारी पीड़ा सहते हैं। 

अजय कुमार द्विवेदी ''अजय''

©Ajay Kumar Dwivedi 
  #अजयकुमारव्दिवेदी शीर्षक - लगता सच में ही पागल हूँ मैं।

Ajay Kumar Dwivedi

#अजयकुमारव्दिवेदी शीर्षक - लगता सच में ही पागल हूँ मैं। #कविता

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शीर्षक - लगता सच में ही पागल हूँ मैं। 

कोईं पागल कोईं भूलक्कड़, कोईं हिटलर कहता हैं।
दिल को वहीं दुखाता है, जो दिल के भीतर रहता है।
जीवन की इस उधेड़ बूँद में, ऊलझ गया हूँ मैं यारों।
एकांत मुझे जब मिलता है, आँखों से आंसूं बहता है।
सोच रहा हूँ आखिर क्यूँ, और क्या मैं गल्ती करता हूँ।
चारों ओर हैं अपने मेरे, फिर क्यूँ अकेला रहता हूँ।
समझ नहीं आता है मुझको, उत्तर कहाँ से लाऊं मैं।
सब तो बहते हैं एक दिशा में, फिर क्यूँ बिपरीत मैं बहता हूँ।
लगता सच में ही पागल हूँ मैं, सभी ठीक तो कहते हैं।
अकेला केवल रहता हूँ मैं, बाकी सब मिलकर रहते हैं। 
नहीं फिकर है किसी की मुझको, सबको मेरी चिंता हैं। 
मेरे कारण ही तो सबके सब, भारी पीड़ा सहते हैं। 

अजय कुमार द्विवेदी ''अजय''

©Ajay Kumar Dwivedi #अजयकुमारव्दिवेदी शीर्षक - लगता सच में ही पागल हूँ मैं।

Ajay Kumar Dwivedi

#अजयकुमारव्दिवेदी शीर्षक - मैं क्या? धिक्कार उसे लिख्खूं। #Nodiscrimination

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*शीर्षक - मैं क्या? धिक्कार उसे लिख्खूं।*
आज  व्यथित  हूँ मैं चिंतित भी हूँ।
इक अनजाने डर से संकित भी हूँ।
ना  जाने कल किसको क्या होगा।
यह  सोच  कर मैं विचलित भी हूँ।
समझ  नहीं  कुछ आता  मुझको।
अब   किसके   पांव  पखांरू  मैं।
संसार   है   पीड़ित   कोरोना  से। 
अब  किसको  आज  पुकारूं मैं। 
मन   का   बहम   ना   जाता  है। 
अब   राम   नाम  जपते - जपते।
बन   काल   कोरोना   खाता  है। 
मिटता  है  मानव  हसते - हसते। 
कल शाम ही जिससे बात हुई थी। 
आज  सुबह  सुना  वो  नहीं  रहा। 
इतना   भला  था  मानुष  वो  कि। 
कुछ  कभी  किसी  से  नहीं कहा। 
सोच  रहा   हूँ  इस  बदहाली  का। 
मैं     जिम्मेदार    किसे    लिख्खूं। 
सिंहासन  लगता नाकाम हो गया। 
मैं  क्या?  धिक्कार  उसे  लिख्खूं। 
अजय कुमार द्विवेदी ''अजय''

©Ajay Kumar Dwivedi #अजयकुमारव्दिवेदी  शीर्षक - मैं क्या? धिक्कार उसे लिख्खूं। 

#Nodiscrimination

Ajay Kumar Dwivedi

शीर्षक - माँ 
जिस दिन मेरा जन्म हुआ मै रिणी हो गया माँ तेरा।
तेरे  आँचल  में  ही  तो  खेला  है  माँ  बचपन मेरा।
तू जो ना होती जग में तो मुझको कौन समझता माँ।
बीन  तेरी  ममता  के  कैसे मै दुनिया में पनपता माँ।
मै तो कुछ बोला ही नहीं मेरे मन में क्या तू समझ गई।
जब    जैसा   चाहा   मैने   तू   मेरे   रंग  में ढ़ल   गई।
जब भूख से मै रोने लगता तो मुझको दूध पिलाती तू।
लहूं  पिला  कर  अपने  तन का  मेरी भूख मिटाती तू।
जब भी मैं रोता था  मईया तू  भी तो रोने लगती थी।
हसता देख के मुझको माँ तू भी तो हसने लगती थी।
चोट  मुझे  लगतीं  थी  तो  दर्द  तुझे  होता  था माँ।
मै किसी बात से घबराऊं तो दिल तेरा रोता था माँ।
मै अब तक समझ  नहीं पाया  की  ऐसा  क्यों  होता  था माँ।
तू थोड़ा सा ओझल होतीं आँखों से मै जोर जोर रोता था माँ।
पर जो कुछ भी है सब चंगा हैं माँ। 
तेरे चरणों में ही निर्मल गंगा है माँ। 
तेरे  चरणों  में  ही  तो  अब  चारों धाम मेरा है माँ।
मेरे दिल में राम से पहलें बस एक नाम तेरा है माँ।
क्यों मन्दिर मस्जिद चर्च मै जाऊँ क्यों गुरव्दारे में शीश नवाऊं।
है  घर  मेरे  भगवान्  विराजित  मै  क्यों न उनको रोज बनाऊं।

अजय कुमार द्विवेदी ''अजय''

©Ajay Kumar Dwivedi #अजयकुमारव्दिवेदी शीर्षक - माँ 

#MothersDay2021

Ajay Kumar Dwivedi

#अजयकुमारव्दिवेदी शीर्षक - देखों कैसे - कैसे खेल दिखाती है जिन्दगी। #कविता

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शीर्षक - देखों कैसे - कैसे खेल दिखाती है जिन्दगी।

देखों   कैसे - कैसे   खेल   दिखाती  है  जिन्दगी।
कभी  हँसाती  है  तो  कभी  रूलाती है जिन्दगी।
जब   कभी    जिन्दगी   से   जी   ऊब  जाता  है।
तो   जीने   की   राह   नईं   दिखाती  है जिन्दगी।
हर    रोज    नया    खेल    रचाती    है  जिन्दगी।
हर    रोज    एक    खेल    मिटाती   है  जिन्दगी।
कभी   किसी   गैर को भी अपना  बना  लेती  है।
तो   कभी  अपनों  को  गैर  बनाती  है  जिन्दगी।
कभी  किसी  को  नसीब  होने नहीं देती रोटियाँ। 
तो  किसी  को छप्पन भोग खिलाती है जिन्दगी। 
दुनियां    में   हर   किसी   का   एक   प्यार   दोस्त   होता   है। 
उस दोस्त के कभी नजदीक तो कभी दूर ले आती है जिन्दगी। 
कभी  गर्मी  के  पशीने  में  तो  कभी सर्दी की ओस से। 
तो कभी-कभी बारीस के पानी में नहलाती है जिन्दगी। 
कोईं     राम     बेचता     है     तो     कोईं     रहीम     बेचता     है। 
तो कभी धर्म के नाम पर इंसान को इंसान से लड़वाती है जिन्दगी।
कहीं   पर  खुशियां तो कहीं पर गम बरसाती है जिन्दगी।
कहीं पर बहादुरी तो खौफ का मंजर दिखाती है जिन्दगी।
छीन    लेती    है    सुख    चैन   इंसान   के   जीवन   से।
हँसते हुए इंसान को भी आँसुओं में नहलाती है जिन्दगी।
ढ़ूढ़ने की कोशिश कर रहा हूं मैं। 
इधर-उधर  भटक ढ़ूढ रहा हूँ मैं।
काश  ये  पता  चले  क्या  चीज़  है जिन्दगी।
जीने  की अगर ख्वाहिश जगे कभी दिल में।
तो क्यूँ मौत से सामना करवाती है जिन्दगी।
हर  रोज  नये सपनें सजाती है जिन्दगी।
हर रोज एक सपना मिटाती है जिन्दगी।
देखों कैसे - कैसे खेल दिखाती है जिन्दगी।
जिन्दगी   ये  जिन्दगी  हाय  मेरी  जिन्दगी।

अजय कुमार द्विवेदी ''अजय''

©Ajay Kumar Dwivedi #अजयकुमारव्दिवेदी शीर्षक - देखों कैसे - कैसे खेल दिखाती है जिन्दगी।

Ajay Kumar Dwivedi

#अजयकुमारव्दिवेदी शीर्षक - रूक जा ये वक्त जरा तू।

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उनसे दूर *शीर्षक - रुक जा ये वक्त अब तू।* 

रूक जा ये वक्त अब तू, बस यहीं थम जा जरा।
लग  के  सीने  से  मुझे, अपनों  के तू रो लेने दे।
ये कोरोना का कहर, आगे भयानक और है। 
कम  से  कम आज तो, तू चैन से सो लेने दे। 
क्या पता कल की सुबह, मैं देखूंगा की भी नहीं। 
आज   की   ये   शाम  मुझे  तू, देख  तो  लेने दे।
कईं अपने बिछड़ गयें है, मुझसे इसी साल में। 
जो  बचे  हैं  साथ उनके, आज तो जी लेने दे।
तू  बढ़  रहा  है  लेकर, ये  मौत  का  सैलाब  जो।
थम जा तू जो बचें है, मुझे उनसे तो मिल लेने दे। 
मैं   नहीं   डरता   हूँ  तुझसे, बेसक  तू  मौत  दे  मुझे। 
बचा सकूं मैं अपनो को, मुझे इतनी तो तू मोहलत दे। 

*अजय कुमार द्विवेदी ''अजय''*

©Ajay Kumar Dwivedi #अजयकुमारव्दिवेदी शीर्षक - रूक जा ये वक्त जरा तू।

Ajay Kumar Dwivedi

#अजयकुमारव्दिवेदी मेरी कीमत नहीं रहीं

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Alone  शीर्षक - मेरी कीमत नहीं रहीं।

नजरों   में   किसी   के   मेरी   कीमत  नहीं  रहीं।
मैं   चन्द   रुपयों   के   लिए   बदनाम   हो  गया।
किसी को मेरा हुनर किसी को करतब बुरा लगा।
हुआ    नाम    मेरा    ऐसा   मैं   बेनाम  हो  गया।
बेलसता रहा मैं अब तक औरों की सम्पत्ति।
इस   बात  का  मुझको  एहसास  तो  हुआ।
गैरों  के  धन  पे  राजा  बनना  नहीं  अच्छा।
अच्छा  है  आज  मैं  भी  बरबाद  तो  हुआ।
जो  भी  हुआ  है  अच्छा  कुछ  भी  बुरा नहीं है। 
जिन्दगी  में  मिला  सबकों कुछ भी पूरा नहीं है। 
कबतक  कोईं  खैरात  में पाले किसी को बोलों। 
ये जो कुछ भी दिख रहा है कुछ भी मेरा नहीं है। 
खैर  ये  अच्छा हुआ मेरी आँख तो खुली।
जिस  राह पर है चलना वो राह तो मिलीं।
अब तक अंधेरों में बस भटक रहा था मैं।
रूकना जहाँ था मुझको पनाह तो मिलीं।

अजय कुमार द्विवेदी ''अजय''

©Ajay Kumar Dwivedi #अजयकुमारव्दिवेदी मेरी कीमत नहीं रहीं
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