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गजेन्द्र द्विवेदी गिरीश

#इस_वैलेंटाइन_बस_यही_निवेदन-

केवल शरीर का आकर्षण ही तो  प्रेम नहीं होता है,
अपनत्व का सिर्फ प्रदर्शन ही तो प्रेम नहीं होता है।
यहाँ बसे हैं मानव संग कोई देव पशु और दानव-
हर जगह पे व्यर्थ समर्पण ही तो प्रेम नहीं होता है।१।

मन का भेद कहे ना फिर तो, कोई कैसे जाने,
दिल में किसके क्या बसा वो, कोई कैसे जाने।
खुलकर आयेगा समक्ष जब, तब तो बात बनेगी-
परदे में सब रहा छिपा तो, कोई कैसे जाने।२।

सूख गया जो प्रेम तो फिर, जीवन कैसे संभव्,
डूब गया जो प्रेम तो फिर, जीवन कैसे संभव।
हररस से जब भीगेगा तो मन खुश भी हो जाए-
ऊब गया जो प्रेम तो फिर, जीवन कैसे संभव।३।

हाथ बढाकर सबके दिल तक हमतुम पहुँच बनाए,
सूरज सा विश्वास जमे फिर, ऐसी अलख जगाएं।
प्रेम तभी सम्पूर्ण बनेगा है सबके दिल का कहना-
आओ मिलकर हम परस्पर, ऐसी समझ बढायें।४।

जीवन में सम्मान तभी, जब जब प्रेम मिला हो,
जीवन कलरव गान तभी, जब जब प्रेम खिला हो।
मिथ्या वह जीवन है जिसमें रंग अलग से दिखते-
जीवन में नव जान तभी, जब जब प्रेम सिला हो।५।

#गजेन्द्र_द्विवेदी_गिरीश
भिलाई 3 (C.G.)
M#70008 58588 वैलेंटाइन


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