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नितिन मिश्र (निर्मोही)
ये आग मज़हब, धर्म सब देखती है सूखे कुंठित दिल दिमाग मिलते ही चिंगारी बनकर जा मिलती है धधकती लपटों मे परिवर्तित होने को ये आग सबकुछ देख सकती है इसलिए वो देखती है धर्म, जाति, मज़हब फिर उसमे छुपी धार्मिक, वैचारिक कट्टरता को ये आग सुन लेती है मन में उबल रहे जेहादी नारों कों,उन्मादी जयघोषों को इस आग का मस्तिष्क भी होता है तभी तो हर बार वो नही भूलती लपेटे मे लेने से उस गरीब और अमीर को भी जो ना तो दंगाई होता है ना ही प्रदर्शनकारी वैसे तो ये आग बढ़ती रहती है मूढ़ जन रूपी हवाओं के रुख के साथ मगर नहीं जाती नहीं भटकती उन दरिया रूपी शीतल प्रबुद्ध जनों के आसपास शायद डरती है उनकी शीतलता कहीं इसे ठंडा न कर दे ये आग भेदभाव भी करती है वामपंथ, कम्युनिज्म, लिब्रलिस्म, सेक्युलिरिज़्म, हिंदुत्व, इस्लामिज़म के अलावा भी एक पंथ है "मानवपंथ" जिसे ये छूती तक नहीं या फिर शायद वो ही छूने नहीं देते वही "मानवपंथ" हर बार शायद सबकुछ राख होने से बचा लेता होगा इस आग मे जले हुए से कोई धुआँ नहीं उड़ता जो उड़ता है वो होता है एको अहं द्वितीयो नास्ति का खंडित, कट्टर विचार और उन विचारों की बलि चढ़ी इंसानियत, मरे हुए मन,जीवन भर का पश्चाताप और खून के वो आँसू जिनकी भरपाई करना शायद असम्भव हो जाता है मानवता के पूर्ण उदय तक शायद ये आग यूँ ही जलती रहेगी फैलती रहेगी कभी शाहरुख तो कभी गोपाल बनकर और जलाती रहेगी इंसानियत को ये "आग" ये "नफरत" की आग। "Nirmohi" #Dwell_in_possibility #DelhiIsBurning #NitinNirmohiQuotes
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