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@Anuj K Solanki
मजदूर ही करता है सृजन, तेल बन कर खुद को डालता है, शहर बनती ईंधन की टंकियों में जलाता है खुद को, इन मशीनों को शहर बनाने के लिए खींचता है दो पहियों की ठेली, अपनी छाती से सटाकर ढोता है सिर पर,बाबुओं की विलासिताओं को बनाता है पानी, अपने खून को खौलाकर हाँफता है, पर मुस्कुराता है ईश्वर भी क्या मजदूर बनाता है शहर बनकर इतराती फिरती हैं, मशीनें भूल जाती हैं उस तेल के वलिदान को विस्मृत कर देती हैं, उसके अद्भुत योगदान को टरका देती हैं पूँजीपति बन, उसे कुछ सिक्के देकर सिक्कों की कीमत, उसके पसीने से बहुत कम होती है फिर भी मजदूर की आँख, कहाँ नम होती है उसकी वेदना भी एकदम निरीह व शांत होती है उसकी मजदूरी की बात भी, एकान्त होती है देखा होगा कभी लाखों कमाते अफसरों को, छीनते निवाले मजदूरों के उस निवाले में भी कृष्ण बन झपटते हैं उसके दो मुट्ठी चावलों पर पर क्या बाद में बनते हैं वे द्वारिकाधीश?? ये यक्ष प्रश्न है देखना जिस दिन ये तेल निकलेगा, इन मशीनों से ये सारे शहर बदल जायेंगे, निर्जीव कबाड़ में और एक मई जब जब आयेगी राजनीति होगी मजदूरों की आड़ में । मौलिक रचना #कुमार अनुज सोलंकी 1 मई #मजदूरदिवस #मजदूर #मजदूरदिवस #लेवरडे #1May #MayDay
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