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Chandna Gusain
#OpenPoetry घ्याल मच्युं यख मन्ख्युं कु , भिबडाट च मोटर कारु कु घ्याल मच्युं यख मन्ख्युं कु , भिबडाट च मोटर कारु कु.! तेरी मयलु बँसुरी बौण भुलु . नीच युं शहरु बजारु कु जा लौट जा डांडी कांठ्युं मा , जा लौट जा डांडी कांठ्युं मा . तेरु गौं देखणु होलु तेरु बाटु , रमणा होला गोर डांडो मा तेरु गौं देखणु होलु तेरु बाटु , रमणा होला गोर डांडो मा.! खोजणा होला त्वेथे तेरा अपडा , तु कख अलझी यख कांडो मा.! यख रिश्ता नाता नी मन्दु क्वी. हो ओ होओओओओओओओ यख रिश्ता नाता नी मन्दु क्वी , बस नजर च गेडी गाँठयूं मा जा लौट जा डांडी काठ्युं मा. , जा लौट जा डांडी काठ्युं मा.!! . को मलासलु लाटा मुन्डी तेरी , को पेलु भुकी चोंठी पकडी को मलासलु लाटा मुन्डी तेरी , को पेलु भुकी चोंठी पकडी.! क्वी नी सुणदु खैरी केकी , लिजा अपडी पीडा अफु दगडी खोटी हैंसी हैंसदन बैर ,,,,,,,,,,,,,,, होओ ओहहहहह खोटी हैंसी हैंसदन बैर , छन पित्त पक्याँ यख जिकुड्यु मा जा लौट जा डांडी कांठ्युं मा. , जा लौट जा डांडी काठ्युं मा.!! . छन लोग कमाणा दिन रात , नी बगत द्वी गप्पा खाणा कु छन पलंग बिछ्यां यख कमरों मा , नी टेम घडेकु सीणा कु .! हर्च्युं चा दिनु कु चैंन भुलु ,,,,,,, ,,,,,,,,,,,,,,,,होओ ओहहहह हर्च्युं चा दिनु कु चैंन भुलु , बिरडी चा नींद यख रात्युं मा जा लौट जा डांडी कांठ्युं मा. जा लौट जा डांडी काठ्युं मा.!! . वो मयलु पराण वा मनख्यत , नी राई यखे हव्वा पाणी मा वो मयलु पराण वा मनख्यत , नी राई यखे हव्वा पाणी मा.! यख मनखी मशीन व्हेगे भुल्ला , दिन रात च खैंचा ताणी मा क्या सोची ऐ तु यख लाटा ,,,,, ,,,,,,,,,,,होओ ओहहहहहह क्या सोची ऐ तु यख लाटा ,, त्वे लोग बैठाला आँख्युं मा जा लौट जा डांडी कांठ्यूं मा. जा लौट जा डांडी काठ्युं मा.!! . गीत :- नरेंद्र सिंह नेगी जी . ... एल्बम :- छिबड़ाट , #जालोटिजा_डांडी_काठयो_मा
@krishn_ratii (Astrologer)
हर लम्हें में एक नया इंसान। हर इंसान में एक नया लम्हा। ढूंढता खुद को अजनबियों में। खुद से होकर अंजान हर लम्हा हर इंसान। चल रहा, रुक रहा, गिर रहा, संभल रहा। भाग रहा, दौड़ रहा, पकड़ रहा, छोड़ रहा। चाह रहा खुशी और गम के तार जोड़ रहा। तोड़ रहा, मरोड़ रहा, फेंक रहा, बटोर रहा। तिल को ताड़, ताड़ को तिल। राई को पहाड़, पहाड़ को राई बना झकझोर रहा। पर खोज नहीं रहा खु़द को क्योंकि खुद से है खफा। चार कदम की दूरी को मीलों का रास्ता समझ मुख मसोड़ रहा। धर्म को अधर्म को न्याय को अन्याय को एक ही तराजू में तोल रहा। यथार्थ को अन्यथा, संभव को असंभव, संतोष को असंतोष बना इस छोर से उस छोर दौड़ रहा। ठहर नहीं रहा स्वयं में बार बार स्वयं को ही खोद रहा। होकर अनभिज्ञ इस तथ्य से प्रेम का पथ भूल रहा। अंजान होकर अपने स्वरूप से अपनी आंखों में ही धूल झोंक रहा। #kadam #challenge #kavishala #nojoto #nojotokhabri #kavishala #poetry
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