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कवि मुकेश मोदी

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धरती माँ की पुकार

माँ हूँ बच्चों मैं तुम्हारी और तुम हो मेरे लाल

पाल पालकर तुम सबको हो गई मैं कंगाल

कमजोर किया मुझे चीर के देखो मेरा सीना

प्रदूषण फैलाकर कठिन कर दिया मेरा जीना

बाँझ मुझे बनाया पिलाकर जहरीले रसायन

अपने विकास का तुम करते हो झूठा गायन

कहीं किया मुझे बंजर कहीं दलदल फैलाया

घोर बिमारियों से मुझको भी ग्रसित बनाया

ऐसी जर्जर हालत में कैसे तुम सबको पालूं

कैसे अपने सीने से अमृत तुल्य फल निकालूं

पुत्र समान मेरे प्रिय वृक्षों को तुमने काट दिया

मेरे ही आँचल को तुमने सीमाओं में बाँट दिया

चलते चलते मुसाफिर थककर ही मर जाता है

दूर दूर तक पेड़ की ठंडी छाँव नहीं वो पाता है

छलनी किया मेरा सीना तूने ये क्या कर डाला

लालच में तूने मेरे मुख का छीन लिया निवाला

तेरे पांवों तले रहती थी तुझसे क्या मैं लेती थी

जितना लेती थी तुझसे हजार गुना मैं देती थी

अब भी नहीं बिगड़ा कुछ खुद को तूँ संभाल

विलासिता के जंजाल से खुद को तूँ निकाल

हरियाली बढ़ाकर करते जाना तूँ मेरा पालन

श्रीमत के बल पर करना जीवन का संचालन

प्यार करके मुझको तूँ पा ले सुख अविनाशी

हरियाली फैलाकर तूँ मिटा दे मेरी भी उदासी

मेरी सेवा करेगा तो मैं भी सेवा करूंगी तेरी

सुख दूंगी अपार तुझे ये है अटल प्रतिज्ञा मेरी

ॐ शांति

कवि मुकेश मोदी

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धरती माँ की पुकार

माँ हूँ बच्चों मैं तुम्हारी और तुम हो मेरे लाल

पाल पालकर तुम सबको हो गई मैं कंगाल

कमजोर किया मुझे चीर के देखो मेरा सीना

प्रदूषण फैलाकर कठिन कर दिया मेरा जीना

बाँझ मुझे बनाया पिलाकर जहरीले रसायन

अपने विकास का तुम करते हो झूठा गायन

कहीं किया मुझे बंजर कहीं दलदल फैलाया

घोर बिमारियों से मुझको भी ग्रसित बनाया

ऐसी जर्जर हालत में कैसे तुम सबको पालूं

कैसे अपने सीने से अमृत तुल्य फल निकालूं

पुत्र समान मेरे प्रिय वृक्षों को तुमने काट दिया

मेरे ही आँचल को तुमने सीमाओं में बाँट दिया

चलते चलते मुसाफिर थककर ही मर जाता है

दूर दूर तक पेड़ की ठंडी छाँव नहीं वो पाता है

छलनी किया मेरा सीना तूने ये क्या कर डाला

लालच में तूने मेरे मुख का छीन लिया निवाला

तेरे पांवों तले रहती थी तुझसे क्या मैं लेती थी

जितना लेती थी तुझसे हजार गुना मैं देती थी

अब भी नहीं बिगड़ा कुछ खुद को तूँ संभाल

विलासिता के जंजाल से खुद को तूँ निकाल

हरियाली बढ़ाकर करते जाना तूँ मेरा पालन

श्रीमत के बल पर करना जीवन का संचालन

प्यार करके मुझको तूँ पा ले सुख अविनाशी

हरियाली फैलाकर तूँ मिटा दे मेरी भी उदासी

मेरी सेवा करेगा तो मैं भी सेवा करूंगी तेरी

सुख दूंगी अपार तुझे ये है अटल प्रतिज्ञा मेरी

ॐ शांति

कवि मुकेश मोदी

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धरती माँ की पुकार

माँ हूँ बच्चों मैं तुम्हारी और तुम हो मेरे लाल

पाल पालकर तुम सबको हो गई मैं कंगाल

कमजोर किया मुझे चीर के देखो मेरा सीना

प्रदूषण फैलाकर कठिन कर दिया मेरा जीना

बाँझ मुझे बनाया पिलाकर जहरीले रसायन

अपने विकास का तुम करते हो झूठा गायन

कहीं किया मुझे बंजर कहीं दलदल फैलाया

घोर बिमारियों से मुझको भी ग्रसित बनाया

ऐसी जर्जर हालत में कैसे तुम सबको पालूं

कैसे अपने सीने से अमृत तुल्य फल निकालूं

पुत्र समान मेरे प्रिय वृक्षों को तुमने काट दिया

मेरे ही आँचल को तुमने सीमाओं में बाँट दिया

चलते चलते मुसाफिर थककर ही मर जाता है

दूर दूर तक पेड़ की ठंडी छाँव नहीं वो पाता है

छलनी किया मेरा सीना तूने ये क्या कर डाला

लालच में तूने मेरे मुख का छीन लिया निवाला

तेरे पांवों तले रहती थी तुझसे क्या मैं लेती थी

जितना लेती थी तुझसे हजार गुना मैं देती थी

अब भी नहीं बिगड़ा कुछ खुद को तूँ संभाल

विलासिता के जंजाल से खुद को तूँ निकाल

हरियाली बढ़ाकर करते जाना तूँ मेरा पालन

श्रीमत के बल पर करना जीवन का संचालन

प्यार करके मुझको तूँ पा ले सुख अविनाशी

हरियाली फैलाकर तूँ मिटा दे मेरी भी उदासी

मेरी सेवा करेगा तो मैं भी सेवा करूंगी तेरी

सुख दूंगी अपार तुझे ये है अटल प्रतिज्ञा मेरी

ॐ शांति

Parul Sharma

आज का बचपन जाने कहाँ खोगया है अस्तित्व इसका कम्प्यूटर में विलीन हो गया है जो विचरता था खुले आसमान के नीचे जो खेलता था पवन की मस्त मौजों से फैलाकर बाहें समेट लेता था जहाँ की सारी खुशियाँ बढ़ाकर हाथ छू लेता था आँसमान की बुलंदियाँ जो झगड़ता था, रूठता था, मानाता था, हंसता था, रोता था, खेलता था साथ अन्य बचपनों के

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आज का बचपन जाने कहाँ खोगया है
अस्तित्व इसका कम्प्यूटर में विलीन हो गया है
जो विचरता था खुले आसमान के नीचे
जो खेलता था पवन की मस्त मौजों से
फैलाकर बाहें समेट लेता था जहाँ की सारी खुशियाँ 
बढ़ाकर हाथ छू लेता था आँसमान की बुलंदियाँ
जो झगड़ता था, रूठता था, मानाता था, हंसता था,
रोता था, खेलता था साथ अन्य बचपनों के
जो कहता था अपनी भावनाओ को अपने अपार मित्रों के समूहों से
भावनाओं का वह समंदर आज सिमट कर एक बूँद हो गया है।
आज का बचपन...........................विलीन हो गया है
हो गया है कैद एक बंद कमरे में
हो रहा आहत ए.सी., कूलर,पंखे की हवा के थपेड़ों से
फैलाकर बाँह एकांत,उदासी मायूसी समेटता है
बड़ाकर हाथ रिमोट और कीपैड के बटनों को दबोचता है।
हाँ उड़ता है-3, आज वो अंतरिक्ष की असीम ऊँचाईयों में
पर कहाँ कंम्पयूटर के बंद डिब्बे में
आज इसके रिश्ते मित्र टी.वी. कंम्प्यूटर, वीडियो गेम है।
ये आधुनिक बचपन है जो मशीन हो गया है
जो भावना हीन, उमंगहीन हो गया है।
आज का बचपन................. ........विलीन हो गया है।
उठो जागो 'ए बचपन' इस चिरनिन्द्रा से
और समेटो और जुड़ जाओ मित्रों के समूहों से
उड़ो आकाश में, साँस लो खुली हवा में
फैलाकर बांह बढ़ाकर हाथ जीवित कर दो दफ्न बचपन को
नई उड़ान, नई उमंग,नई मुस्कान दो प्रौण हो चले भारत को।
और लौटा दो पुर्न बचपन भारत का भारत को ।
                     पारुल शर्मा आज का बचपन जाने कहाँ खोगया है
अस्तित्व इसका कम्प्यूटर में विलीन हो गया है
जो विचरता था खुले आसमान के नीचे
जो खेलता था पवन की मस्त मौजों से
फैलाकर बाहें समेट लेता था जहाँ की सारी खुशियाँ 
बढ़ाकर हाथ छू लेता था आँसमान की बुलंदियाँ
जो झगड़ता था, रूठता था, मानाता था, हंसता था,
रोता था, खेलता था साथ अन्य बचपनों के

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