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#OpenPoetry मेरी रातों पर पाबंदियां लगाये बैठे हो

#OpenPoetry मेरी रातों पर पाबंदियां लगाये बैठे हो 
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मेरी रातों पर पाबंदियां लगाये बैठे हो...
खुद को मेरा मसीहा बताये बैठे हो..

तुम से डर लगने लगा हैं अब मुझे बहुत... 
खुद ही बाहर एक शैतान बिठाए बैठे हो...

जो लूट कर ले गये मुझसे खुशियां मेरी...
उन अपनो को तुम घर में छुपाये बैठे हो... 

तुम्हारे सामने ही चीखती हैं बेटियाँ जैसी तुम्हारी...
कानों में रूई डाले, चेहरा घुमाए बैठे हो....

जब चाहा जिसे कर दिया बे आबरू तुमने...
फ़िर उसी की मैय्यत में सर झुकाये बैठे हो... 

अपनी ही घर की लगती हैं शहज़ादिया तुमको...
बाहर तो चेहरों पर तुम तेज़ाब गिराये बैठे हो... 

तुम फरेबियो को मुझसे पहचाना नहीं जाता... 
तुम तो चेहरों पर भी एक नया चेहरा लगाये बैठे हो...

©शाहरुख सैफी
#OpenPoetry मेरी रातों पर पाबंदियां लगाये बैठे हो 
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मेरी रातों पर पाबंदियां लगाये बैठे हो...
खुद को मेरा मसीहा बताये बैठे हो..

तुम से डर लगने लगा हैं अब मुझे बहुत... 
खुद ही बाहर एक शैतान बिठाए बैठे हो...

जो लूट कर ले गये मुझसे खुशियां मेरी...
उन अपनो को तुम घर में छुपाये बैठे हो... 

तुम्हारे सामने ही चीखती हैं बेटियाँ जैसी तुम्हारी...
कानों में रूई डाले, चेहरा घुमाए बैठे हो....

जब चाहा जिसे कर दिया बे आबरू तुमने...
फ़िर उसी की मैय्यत में सर झुकाये बैठे हो... 

अपनी ही घर की लगती हैं शहज़ादिया तुमको...
बाहर तो चेहरों पर तुम तेज़ाब गिराये बैठे हो... 

तुम फरेबियो को मुझसे पहचाना नहीं जाता... 
तुम तो चेहरों पर भी एक नया चेहरा लगाये बैठे हो...

©शाहरुख सैफी