ग़ज़ल दुश्मनों के वो ठिकाने हैं कहाँ । धूल उनको फिर चटाने हैं कहाँ ।। शेर हैं जाबांज अपने वीर ये। पूछते घुटने टिकाने हैं कहाँ ।। शान अपनी ये तिरंगा ही रहे । दुश्मनों को फिर झुकाने हैं कहाँ ।। छोड़कर परिवार अपने जो गये । उसको रिश्ते फिर बढ़ाने हैं कहाँ ।। प्रेम को बदनाम जो करते यहाँ । प्रेम के रिश्ते निभाने हैं कहाँ ।। फिर वफ़ा के नाम से अस्मत लुटी । प्रेम की वो अब दुकाने हैं कहाँ ।। मिल रहे है लोग हमसे जिस तरह । पूछ मत तू अब बेगाने हैं कहाँ ।। थक गये उड़ते हुए पक्षी गगन । की जमीं पे अब ठिकाने हैं कहाँ मत प्रखर खोजो वफ़ा की डालियाँ । फूल उनमें अब खिलाने हैं कहाँ ।। ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR ग़ज़ल दुश्मनों के वो ठिकाने हैं कहाँ । धूल उनको फिर चटाने हैं कहाँ ।। शेर हैं जाबांज अपने वीर ये।