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वो कैद है परिंदा, अपनी ही परछाईं में। पूछो उससे तर

वो कैद है परिंदा,
अपनी ही परछाईं में।
पूछो उससे तर्क,
उसकी ही सच्चाई के।।

पल भर में था ओझल,
वो पंख लगा ऊंचाई में।
क्या है अब परवाज़ बची?
के जो अंतःमन ही न सुनाई दे।।

©गुस्ताख़शब्द
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