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अभी भी है इश्क़ में दस्तूर दुनिया का अभी भी है यही

अभी भी है

इश्क़ में दस्तूर दुनिया का अभी भी है यही,
रास्ते टेढ़े मेढ़े पर मंज़िल अभी भी है सही।

कुछ भी बदलता न दिलों के जानिब अब यहाँ,
तुम से ही था वास्ता पहले अभी भी है वही।

जब रूठना कुछ नए तुम बहाने रखना,
शौक बेवज़ह तड़पने का हमें अभी भी है नहीं।

मुख़्तलिफ़ था तुझे देख वक़्त ज़ाया करना,
घर तेरा बदला पर नज़र ये अभी भी है वहीं।

चले जाते हो ज़ालिम मुड़कर कभी देख लो,
जान आप से है बस कहने को अभी भी है यहीं।

मत पूछ कितनी अब और है उमर बची,
चार बातें कर ले दो बाकी अभी भी है रहीं।

कर आशिक़ों की क़िस्मत दुरुस्त ए ख़ुदा!
रूह भटके जाने कितनों की अभी भी है कहीं।
 हसरत मोहानी साहब की लिखी मशहूर ग़ज़ल "चुपके चुपके रात दिन" की बह्र में ही इस ग़ज़ल को लिखा है। हसरत एक मशहूर शायर और आज़ादी के सिपाही थे। उनके बारे में और पढ़ा तो उनकी लिखावट से एक रिश्ता बना और ये भी जाना के हम लोग तो एक ही मिट्टी से हैं - वो अवध के मोहान से और हम लखनऊ से।

कम लोगों को पता है के "इंकलाब ज़िंदाबाद" नारा भी उन्होंने ही लिखा था। हसरत की ग़ज़लों में एक ख़ास बात हुई, जहाँ उन्होंने मेहबूब को ख़ुदा के दर्जे से उतारके सामने एक सादा इंसान सा ला खड़ा किया। जैसे "चुपके चुपके रात दिन" में लिखा "खींच लेना वो मिरा पर्दे का कोना दफ़अ'तन" इसमें मेहबूब मानो सामने ही पर्दे के पीछे खड़ा है और हमारे जैसा ही एक शख़्स है। उनको ही याद करते लिखी ये ग़ज़ल - अभी भी है

जानिब = तरफ़
मुख़्तलिफ़ = अलग

बह्र:   112 / 122 /  112 /  122 /  112
अभी भी है

इश्क़ में दस्तूर दुनिया का अभी भी है यही,
रास्ते टेढ़े मेढ़े पर मंज़िल अभी भी है सही।

कुछ भी बदलता न दिलों के जानिब अब यहाँ,
तुम से ही था वास्ता पहले अभी भी है वही।

जब रूठना कुछ नए तुम बहाने रखना,
शौक बेवज़ह तड़पने का हमें अभी भी है नहीं।

मुख़्तलिफ़ था तुझे देख वक़्त ज़ाया करना,
घर तेरा बदला पर नज़र ये अभी भी है वहीं।

चले जाते हो ज़ालिम मुड़कर कभी देख लो,
जान आप से है बस कहने को अभी भी है यहीं।

मत पूछ कितनी अब और है उमर बची,
चार बातें कर ले दो बाकी अभी भी है रहीं।

कर आशिक़ों की क़िस्मत दुरुस्त ए ख़ुदा!
रूह भटके जाने कितनों की अभी भी है कहीं।
 हसरत मोहानी साहब की लिखी मशहूर ग़ज़ल "चुपके चुपके रात दिन" की बह्र में ही इस ग़ज़ल को लिखा है। हसरत एक मशहूर शायर और आज़ादी के सिपाही थे। उनके बारे में और पढ़ा तो उनकी लिखावट से एक रिश्ता बना और ये भी जाना के हम लोग तो एक ही मिट्टी से हैं - वो अवध के मोहान से और हम लखनऊ से।

कम लोगों को पता है के "इंकलाब ज़िंदाबाद" नारा भी उन्होंने ही लिखा था। हसरत की ग़ज़लों में एक ख़ास बात हुई, जहाँ उन्होंने मेहबूब को ख़ुदा के दर्जे से उतारके सामने एक सादा इंसान सा ला खड़ा किया। जैसे "चुपके चुपके रात दिन" में लिखा "खींच लेना वो मिरा पर्दे का कोना दफ़अ'तन" इसमें मेहबूब मानो सामने ही पर्दे के पीछे खड़ा है और हमारे जैसा ही एक शख़्स है। उनको ही याद करते लिखी ये ग़ज़ल - अभी भी है

जानिब = तरफ़
मुख़्तलिफ़ = अलग

बह्र:   112 / 122 /  112 /  122 /  112

हसरत मोहानी साहब की लिखी मशहूर ग़ज़ल "चुपके चुपके रात दिन" की बह्र में ही इस ग़ज़ल को लिखा है। हसरत एक मशहूर शायर और आज़ादी के सिपाही थे। उनके बारे में और पढ़ा तो उनकी लिखावट से एक रिश्ता बना और ये भी जाना के हम लोग तो एक ही मिट्टी से हैं - वो अवध के मोहान से और हम लखनऊ से। कम लोगों को पता है के "इंकलाब ज़िंदाबाद" नारा भी उन्होंने ही लिखा था। हसरत की ग़ज़लों में एक ख़ास बात हुई, जहाँ उन्होंने मेहबूब को ख़ुदा के दर्जे से उतारके सामने एक सादा इंसान सा ला खड़ा किया। जैसे "चुपके चुपके रात दिन" में लिखा "खींच लेना वो मिरा पर्दे का कोना दफ़अ'तन" इसमें मेहबूब मानो सामने ही पर्दे के पीछे खड़ा है और हमारे जैसा ही एक शख़्स है। उनको ही याद करते लिखी ये ग़ज़ल - अभी भी है जानिब = तरफ़ मुख़्तलिफ़ = अलग बह्र: 112 / 122 / 112 / 122 / 112 #ghazal #yqbaba #yqdidi #yqhindi #yqlove #yqghazal #yqaestheticthoughts