सुप्त थी सारी धरा बस, एक केवल मैं जगा था। मन में अगणित प्रश्न उठ,प्रति क्षण कोलाहल कर रहे थे। नीर नयनों से निकल कर बाँह को मेरे भिगोते। मन व्यथित था निज व्यथा पर फिर भला कैसे न रोते। पूर्व से आती हवाएं, थपकियाँ दे दे सुलातीं। किंतु वो भी अश्रुओं को, कब भला है रोक पातीं। लोग बस दर्शक बने थे पंख मेरे जल रहे थे। सांत्वना के शब्द मुझको,बारी बारी छल रहे थे। मन में अगणित प्रश्न उठ,प्रति क्षण कोलाहल कर रहे थे। है निरर्थक ध्यान पूजा , जाप क्या मैं मान लूंँ अब। साधना का फल मिलेगा, श्राप क्या मैं मान लूंँ अब। क्या अधर्मी ही करेंगे राज इस पावन धरा पर। अब नहीं आयेंगे राघव, आप क्या मैं मान लूंँ अब। हम विचारों के नगर में,अनवरत यूंँ चल रहे थे। मन में अगणित प्रश्न उठ,प्रति क्षण कोलाहल कर रहे थे। #मनीष_मन #मौर्यवंशी_मनीष_मन