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विरह वेदना से द्रवित मन लिए, भटक रही हूँ मृग मरीचि

विरह वेदना से द्रवित मन लिए,
भटक रही हूँ मृग मरीचिका सी,
इन  अधरों   की   प्यास   बुझाने , 
एक रोज तो तुम आओगे,
आशाओं  के दीप आज भी ,
मन की देहरी पर जला कर रखती हूँ,
उस दीप के बुझने से पहले ,
तुम मुझ अपूर्ण को पूर्ण कर जाओगे,
बेला और कुमुदिनी तो रोज खिलती हैं,
पर रातरानी देह जलाती हैं,
मेरे मुरझाए वदन को देखकर , 
चाँदनी भी बुझी बुझी नज़र आती है,
तुम चले आओ इस बार ,
तो हृदय की पीर को थोड़ा आराम आये,
रात भी मानो काटने को दौड़ती है ,
अब दिखते ही नही मुझे अपने साये,
मैं इंतज़ार करूँगी ,मेरे अंतिम श्वास तक ,
जानता है मन कि तुम आओगे,
मेरे तो मोक्ष के द्वार तुम्ही हो, 
मुझे मुक्तिपथ पर तुम्ही तो अपने काँधों पर ले जाओगे।।
                                           पूनम आत्रेय

©poonam atrey
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