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ढलती ये रात भी छोड़ गई साथ आई हमें जब तेरी याद।

ढलती ये रात 
भी छोड़ गई साथ 
आई हमें जब तेरी याद।

आंखे थी नम 
और नींदे गुम
सीने पर हुए थे लाखों आघात।

बेचैनी बड़ी 
थी घेरे खड़ी 
और धीमे धीमे हो रहा था प्रभात।

ख्वाबों के सहारे 
थे जो पल गुजारे 
अब छिन रहे थे मेरा हमराज़।

उठ फ़िर मैं चल दिया 
जीवन से फ़िर लड़ दिया 
ख्वाबों से घर नहीं चलता साहब।

जैसे जैसे बीती पहर 
रह रह कर साँसें रही थी ठहर 
लेकर यादों का दौर, फिर आ रही थी रात।।

©Sagar Parasher
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