ग़ज़ल क्यों इतना मन मेरा दुखयारी होने लगता है । मान खुदा उन्हें ये दिल पुजारी होने लगता है ।। दूर दूर के नाते थे बंधन में जो बाँधें थे । उनकी खातिर दिल अब महतारी होने लगता है ।। रूठ नही जाएं हमसे हरपल चिंता है रहती । सोंच सोंच कर दिल मेरा भारी होने लगता है ।। झुक जाता था शीश हमारा देख सामने जिनको । रिश्तों का वो यारों व्यापारी होने लगता है ।। कितने और जन्म ले लूँ बोलों मैं उनकी खातिर । हर जीवन तो उनका ही आभारी होने लगता है ।। माँग भरा शृंगार कराया अपना हर सपना भूला । मगर प्रीत माँगता तो भिखारी होने लगता है ।। दो टूके भी खिला न सकता बाते करता ऊँची । आते द्वार भिखारी भण्ड़ारी होने लगता है ।। १८/०२/२०२३ - महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR ग़ज़ल क्यों इतना मन मेरा दुखयारी होने लगता है । मान खुदा उन्हें ये दिल पुजारी होने लगता है ।। दूर दूर के नाते थे बंधन में जो बाँधें थे ।