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जान लेकर हथेली पे जाता रहा वक़्त के साथ

जान   लेकर  हथेली   पे    जाता  रहा
वक़्त  के  साथ  खुद  को भुलाता रहा

ज़िन्दगी  तेरी   कीमत  से अंजान  था
हर   घड़ी  का   किराया चुकाता  रहा

कुछ  खता भी न थी और रूठा था वो
मैं  उसी   शख़्स  को  क्यूँ मनाता रहा

मैं  बिखर  सा  गया टूट कर ज़ीस्त में
और  फिर  अपने  टुकड़े  उठाता रहा

उसकी  मर्ज़ी  थी  चाहे  न चाहे  मुझे
एक   रिश्ता   उसी  से  निभाता  रहा

दर्द   हीं   से   रहा  वास्ता  उम्र   भर
ये   अलग   बात  है  मुस्कुराता   रहा

जिसकी गलियां सजायी गुलों से वही
मेरे तलवों  में  क्या क्या चुभाता  रहा

कह रहें  हैं  दग़ाबाज तुझको "तरब"
जिसको  इल्जा़म  से  तू बचाता रहा
लोकेश सिंह

©Lokesh Kumar #ग़ज़ल
जान   लेकर  हथेली   पे    जाता  रहा
वक़्त  के  साथ  खुद  को भुलाता रहा

ज़िन्दगी  तेरी   कीमत  से अंजान  था
हर   घड़ी  का   किराया चुकाता  रहा

कुछ  खता भी न थी और रूठा था वो
मैं  उसी   शख़्स  को  क्यूँ मनाता रहा

मैं  बिखर  सा  गया टूट कर ज़ीस्त में
और  फिर  अपने  टुकड़े  उठाता रहा

उसकी  मर्ज़ी  थी  चाहे  न चाहे  मुझे
एक   रिश्ता   उसी  से  निभाता  रहा

दर्द   हीं   से   रहा  वास्ता  उम्र   भर
ये   अलग   बात  है  मुस्कुराता   रहा

जिसकी गलियां सजायी गुलों से वही
मेरे तलवों  में  क्या क्या चुभाता  रहा

कह रहें  हैं  दग़ाबाज तुझको "तरब"
जिसको  इल्जा़म  से  तू बचाता रहा
लोकेश सिंह

©Lokesh Kumar #ग़ज़ल