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हर रोज़ ढलती शाम की तरह हाथों से हाथ छुड़ाती हुई

हर रोज़ ढलती शाम की तरह 
हाथों से हाथ छुड़ाती हुई ज़िंदगी।
हर रोज़ डूबते सूरज की तरह,
डूबती हुई उम्मीदें l
हर रोज़ जागती रातें, टूटते ख़्वाब 
और अधूरी-अधूरी नींदे।
और फ़िर .....
फ़िर से इक नया सूरज और 
हर रोज़ इक नई सुबह के साथ, 
नई उमंगें और नई उम्मीदें।

बस यही है ज़िंदगी, यही तो है ज़िंदगी।
जब तक मौत आती नहीं, साथ छोड़ती नहीं 
ऐसी ज़िद्दी शय है ज़िंदगी।

©Sh@kila Niy@z
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