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किवाड़ों से झाँकती रौशनी
एक जगह थी जो सुनसान,
दिखा वहीं पर घर अनजान।
घर के आगे खुला इलाका,
दिखता था पूरा शमशान।
यहाँ सन्नाटा सब ओर था,
घर पर नहीं कोई और था।
किवाड़ों से झाँकती रौशनी,
जिसका नहीं कोई छोर था।
धूल - मिट्टी से भरा हुआ था,
जालों का भण्डार लगा था।
टूटते से किवाड़ थे उसके,
कबूतरों का वो घर बना था।
फर फर कर उसमें मंडराते,
वो गुटर गूँ से शोर मचाते।
खाने को नहीं मिले वहाँ कुछ,
भोजन लाने को उड़ जाते।
कर जतन भोजन को लाते,
बड़े मगन से फिर वो खाते।
हो जाता जब घर में अँधेरा,
बेखौफ हो कर वो सो जाते।
क्या आगे मैं हाल बताऊँ,
वीराने का दृश्य दिखाऊँ।
जाता नहीं कोई वहाँ पर,
यही तुमको मैं समझाऊँ।
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देवेश दीक्षित
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