अंतर की पीर सुबक रही है तभी तो हमने अधरों पर हास कों बैठा दिया है मुठी भर छाँव की तमन्ना की थी हमने माना नही सूरज अपनी तपती किरणों से उसने हमेँ झूलसा दिया है हटा दीये है हमने पोथी पुराण और शास्त्रों कों अब लगता है हमने जीवन कों आसान कर लिया है मूंदी हुई आंखो कों आज हमने खोल कर देखा लिया है अब हमने आने वाली हर विपदा कों भी समझ लिया ह हमने नेकिया बाँट कर शुभकामनाये काफ़ी बटोर ली है. ऐसा करके हमने अपने अहंकार कों और भी चमका लिया है ©Parasram Arora अंतर की पीर