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"सफ़र" निकला हु सफ़र में,अजीब यहाँ के लोग अजीब ये

"सफ़र"

निकला हु सफ़र में,अजीब यहाँ के लोग अजीब ये जमाना है
चाहत था रास्ते मे देखने का बहुत कुछ,पर ना कोई घर ना कोई मैखाना है
यहाँ बेसुध है हर इंसां अपने उलझें हुए जिंदगी में
 कोई छत पे छत बना रहा है तो किसी के पास रहने का भी नही ठिकाना है 
किसी को नसीब नही दो वक्त की रोटी जहाँ
 तो कोई फेंकता अपने घरों-होटलों से कीमती खाना है 
लाखों करोड़ों लुटा रहा है जो इंसां मंदिर-मस्जिदों में
 और अपने घरों-दफ्तरों में काम कर रहें लोगो का रोक रहा महीनों का मेहनताना है 
गाय-बेलों के गोबर से घिन करता इंसान अपने घर के कुत्ते का मल साफ करता नज़र आता है
 ऐसा बेरुख ये जमाना है 
पैसो की तंगी से भी कोई अपने घर को खुशियों से भर रहा है 
तो कोई पैसे लेकर भटक रहा खुशियां ख़रीदने बाजारों में है 
शोच रहा हु अब लौट चलु अपने गांव अब
क्योंकि कार पर चलने वाला इंसान कहा समझेगा पैदल चलने वालों की कहानी
 पैसो के घमंड में चूर करता है अपनी मनमानी।

©Akhilesh Dhurve
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