बूंदे नीचे गिर जमीं पर रूप वाहिनी का लेकर ये विलीन हो जाती हैं सिंधु में सब त्याग कर ! नही रुकती राह में वो, न कहीं पे इठलाती हैं ! नित समर्पित भाव से सदा बह कर आती हैं ! उम्र भर उधार को ही जीया ये लबालब सिंधु फिर क्यों?इन बूंदों के वजूद को भूल जाता हैं ! रवि के तेज में तपता हैं सागर नदियों का पानी ! हवा संग उड़ हो जाता हैं सारा बनकर आसमानी! मदमस्त हो फ़लक़ में क्यों?बादल मंडराता हैं तप कर पानी वाष्प हो ये खुद को भूल जाता हैं -#रामकरण #WorldEnvironmentDay