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लिखा है जब मुक़द्दर ने शब-ए-हिज्राँ ग़म-ए-फ़

 

लिखा है  जब  मुक़द्दर  ने  शब-ए-हिज्राँ  ग़म-ए-फ़ुर्क़त,
लिखो मत दास्तान-ए-दिल लिखो उनवाँ ग़म-ए-फ़ुर्क़त।

अजब रस्ता  अजब मंज़िल अजब थी  ख़्वाहिशें उनकी,
तलब  थी  ख़ल्वतें  उनकी  नशा-ए-जाँ  ग़म-ए-फ़ुर्क़त।

नहीं  काफ़ी  नहीं   उनको   लगेगा   ज़ख़्म   पे  मरहम,
नमक की  दो दुआ जिनको  दवा-दरमाँ  ग़म-ए-फ़ुर्क़त।

बड़ी   धीमी    हुई   रफ़्तार    सागर   के    मुहाने   पर,
नदी बहती  रही  जब  तक  रहा  इम्काँ  ग़म-ए-फ़ुर्क़त।

किसी  को  जब  कभी  भी   हाय  मैंने  हाल  बतलाया,
कहा  सुल्ताँ  वहाँ  का  मैं   जहाँ  दरबाँ  ग़म-ए-फ़ुर्क़त।

©ऋषि 'फ़क़त'
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