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फिर एक बार मैदान-ऐ-जंग छिड़ने को है लगता है दिल और

फिर एक बार मैदान-ऐ-जंग छिड़ने को है
लगता है दिल और दिमाग़ भिड़ने को हैं
मैं यूँ ही मेहबूब के घर से गुज़रा
तो लगा उनके बाग़ के फूल भी खिलने को हैं
फुर्सत ही कहाँ कि मौसम सुहाना देखूँ
मुलाक़ात ही इतनी सुहानी हैं... ख्वाबों मे मिलने को हैं
वो जब तक सामने बैठा रहा दिल को करार आया
महसूस हुआ ज़ख़्म-e-दिल सिलने को हैं
दो पल को ओझल क्या हुए बीमार हो गया हूँ
छलनी हैं दिल मगर..... दिल मिलने को है

©rittuRaj
  maidaan-e-jung
ritturaj8521

rittuRaj

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maidaan-e-jung #शायरी

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