**बेजुबान ** बिन अल्फाज वो सब कुछ कह गई दर्द की पीड़ा को चुप रह कर सह गई सपनें नव सावन के आँखों में लिए पिया घर गई क्या ? पता था , सपनों की सेज ही उसे ज़िन्दा जलायेगी आशा का था अंकुर फूटा उसमें नव पल्लवित हो गई अंश था उसका ही आईना इसलिये गर्भ में ही दम तोड़ गई दर्द अपने ही अक्श का एक ही नहीं चार बार वो सह गई , अब तो वह बेजान लाश थी ,बस कहने को वह चार कांधों पे चढ़ चिता पर न लेटी आज कन्या पूजन कर माँ को खुश करने की सुझी कैसा ये अभिशाप है साल में दो दिन कन्या सम्मान की हकदार हुई यूँ ही समाज में सम्मान के नाम उनकी बली दी जायेगी कहो ,समाज के ठेकेदारों तुम्हारे घरों में दीप की रोशनी कैसे आयेगी मैं तो हर दर्द धरा सम सह गई पर मेरी बेजुबानी तुम से अपना हक छीन ले जायेगी **बेजुबान ** बिन अल्फाज वो सब कुछ कह गई दर्द की पीड़ा को चुप रह कर सह गई सपनें नव सावन के आँखों में लिए पिया घर गई क्या ? पता था , सपनों की सेज ही उसे ज़िन्दा जलायेगी