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गज़ल –धूप बह्र–212 122 धूप खल रही है। छांव छल रही

गज़ल –धूप
बह्र–212 122

धूप खल रही है।
छांव छल रही है॥

दर्द के दिये में।
आस जल रही है॥

याद की लहर में।
मौन गल रही है॥

रक्त की पुजारन।
गा गजल रही है॥

झूठ की सुराही,
कब अटल रही है॥

नीति दुष्ट बनकर,
दल बदल रही है॥

मौत भी मिलन को,
फिर मचल रही है॥

©दिनेश कुशभुवनपुरी
  ##गज़ल #धूप #छाँव