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मुझ से पहले तुझे जिस शख़्स ने चाहा उस ने  शायद अब

मुझ से पहले तुझे जिस शख़्स ने चाहा उस ने 
शायद अब भी तिरा ग़म दिल से लगा रक्खा हो 
एक बे-नाम सी उम्मीद पे अब भी शायद 
अपने ख़्वाबों के जज़ीरों को सजा रक्खा हो 

मैं ने माना कि वो बेगाना-ए-पैमान-ए-वफ़ा 
खो चुका है जो किसी और की रानाई में 
शायद अब लौट के आए न तिरी महफ़िल में 
और कोई दुख न रुलाये तुझे तन्हाई में 

मैं ने माना कि शब ओ रोज़ के हंगामों में 
वक़्त हर ग़म को भुला देता है रफ़्ता रफ़्ता 
चाहे उम्मीद की शमएँ हों कि यादों के चराग़ 
मुस्तक़िल बोद बुझा देता है रफ़्ता रफ़्ता

©Deep
  #FaizAhmadFaiz