ग़ज़ल-४ क़ैद-ए-नज़र क्यों हूँ, खुला आसमाँ चाहिए, जन्नत-सा रहे पलकों पे, ऐसा मकाँ चाहिए, उसे देखूँ तो लगे, बँदा नूर-ए-ख़ुदा-सा वो, भाए चश्म में देखके, ख़ुदा वैसा इसाँ चाहिए, फ़ैलाकर रहे इर्द-गर्द, हरेक सम्त में मौजूद, इशरत बने, बाग़-ए-उल्फ़त सा समाँ चाहिए, दर्द-ओ-ग़म का रहे ग़र रेगिस्ताँ दिल में कहीं, दुआ-ओ-दवा का फ़ैला, पास दरियाँ चाहिए, घुटन से उभार दे, लगाकर परवाज़ से हौसले, परवरदिगार मिरे रहम में, वो हमनवाँ चाहिए, गोया सजाया ता-उम्र, लगाकर ज़मा - पूँजी, ख़्वाबों ने तराशा जिसे, वो मिरा जहाँ चाहिए, फ़िर रख दो क़ैद-ए-नज़र, मिरे बर्बादी तक, 'विशाल' को सिर्फ़ जन्नत, सर-ए-जाँ चाहिए, ©विशाल पांढरे #You&Me #My_Life_My_World #baat_qalam_ki