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अगर पतजड़ हुआ हैं, तो ये इशरत कैसी बेदिल इस आलम मे

अगर पतजड़ हुआ हैं, तो ये इशरत कैसी 
बेदिल इस आलम में चाहत कैसी।

जो कतरा गिरकर भी गिरता नहीं ज़मीन पर
उसमें यूँ गिरकर बिखरने की हरकत कैसी।

फ़िज़ा रंगीन हो जाए, यार साथ दे अगर 
तेरा यूँ अकेले चलना, यार बिन हसरत कैसी।

जायज हैं उसका यूँ दामन छुड़ाकर चले जाना
फिर तेरा रोना, आखिर यह मुहब्बत कैसी।

इश्क़ भी बिकता हैं, अगर दाम अच्छा लग जाए 
फिर भी वो साथ नहीं, फिर यह दौलत कैसी।

अब तो जमाना खुद का भी वफादार नहीं हैं 
फिर उसने धोखा दिया तो यह हैरत कैसी।

पूरी रात जाम लिए मुहब्बत से आजादी में 
अब मेरे यार ये आँखों पे आफत कैसी।

एक तमन्ना भी थी उनसे मिलने की मगर
वो नहीं मिल पाया, तो ये शिकायत कैसी।

वो हमें लूट कर सरकार बना लेता हैं
उसमें बस चालाकी हैं, कहीं भी सराफत कैसी।

अपनों का हाथ छुड़ाकर गैरों संग रात बिताते हैं
फिर उनका शर्माना, आखिर यह ग़ैरत कैसी।

                                                  -अभिषेक चौधरी

©Abhishek Choudhary
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