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मुंह बाए रह गया।। ज़िन्दगी रही खेलती मुझसे, मैं मु

मुंह बाए रह गया।।

ज़िन्दगी रही खेलती मुझसे, मैं मुंह बाए रह गया।
उम्मीदों का उमड़ता समंदर, मन मे दबाए रह गया।

सबल रहा मैं, चपल रहा,
समय मुझसे भी प्रबल रहा।
सबकोइ इससे हारा था,
सबमे इसका ही दखल रहा।

मनपक्षी गगन में उड़ता रहा,
सच से कब ये जुड़ता रहा।
अम्बर छूने की चाह लिए,
ये उगता रहा कभी डूबता रहा।

इंसान नहीं नभचर था हुआ,
कठिन जमीं का डगर था हुआ।
विचलित मन कब राह दिखाता,
मन अंतर्द्वंदों का समर सा हुआ।

रही आत्मा तो सोती, बस शरीर जगाए रह गया।
ज़िन्दगी रही खेलती मुझसे, मैं मुंह बाए रह गया।

बिन मंज़िल की राह रही,
दर्द नहीं, क्यूँ मन मे आह रही।
किसने दुखती नशों को दबाया है,
किस गर्मी की मुझमे धाह रही।

जीवन अक्षर का खेल नहीं,
है कोई छंदों का मेल नहीं।
जीवन की अदालत बड़ी अनूठी,
है किसी जुर्म का बेल नहीं।

देगा मेरी गवाही कोई नहीं,
मेरे रस्ते का राही कोई नहीं।
जीवनपथ पे अकेला बढ़ना है,
अब बचा है साथी कोई नहीं।

बिन वंदन अभिनंदन के ध्वज फहराए रह गया।
ज़िन्दगी रही खेलती मुझसे, मैं मुंह बाए रह गया।

©रजनीश "स्वछंद" मुंह बाए रह गया।।

ज़िन्दगी रही खेलती मुझसे, मैं मुंह बाए रह गया।
उम्मीदों का उमड़ता समंदर, मन मे दबाए रह गया।

सबल रहा मैं, चपल रहा,
समय मुझसे भी प्रबल रहा।
सबकोइ इससे हारा था,
मुंह बाए रह गया।।

ज़िन्दगी रही खेलती मुझसे, मैं मुंह बाए रह गया।
उम्मीदों का उमड़ता समंदर, मन मे दबाए रह गया।

सबल रहा मैं, चपल रहा,
समय मुझसे भी प्रबल रहा।
सबकोइ इससे हारा था,
सबमे इसका ही दखल रहा।

मनपक्षी गगन में उड़ता रहा,
सच से कब ये जुड़ता रहा।
अम्बर छूने की चाह लिए,
ये उगता रहा कभी डूबता रहा।

इंसान नहीं नभचर था हुआ,
कठिन जमीं का डगर था हुआ।
विचलित मन कब राह दिखाता,
मन अंतर्द्वंदों का समर सा हुआ।

रही आत्मा तो सोती, बस शरीर जगाए रह गया।
ज़िन्दगी रही खेलती मुझसे, मैं मुंह बाए रह गया।

बिन मंज़िल की राह रही,
दर्द नहीं, क्यूँ मन मे आह रही।
किसने दुखती नशों को दबाया है,
किस गर्मी की मुझमे धाह रही।

जीवन अक्षर का खेल नहीं,
है कोई छंदों का मेल नहीं।
जीवन की अदालत बड़ी अनूठी,
है किसी जुर्म का बेल नहीं।

देगा मेरी गवाही कोई नहीं,
मेरे रस्ते का राही कोई नहीं।
जीवनपथ पे अकेला बढ़ना है,
अब बचा है साथी कोई नहीं।

बिन वंदन अभिनंदन के ध्वज फहराए रह गया।
ज़िन्दगी रही खेलती मुझसे, मैं मुंह बाए रह गया।

©रजनीश "स्वछंद" मुंह बाए रह गया।।

ज़िन्दगी रही खेलती मुझसे, मैं मुंह बाए रह गया।
उम्मीदों का उमड़ता समंदर, मन मे दबाए रह गया।

सबल रहा मैं, चपल रहा,
समय मुझसे भी प्रबल रहा।
सबकोइ इससे हारा था,

मुंह बाए रह गया।। ज़िन्दगी रही खेलती मुझसे, मैं मुंह बाए रह गया। उम्मीदों का उमड़ता समंदर, मन मे दबाए रह गया। सबल रहा मैं, चपल रहा, समय मुझसे भी प्रबल रहा। सबकोइ इससे हारा था, #Poetry #Life #Love #kavita #hindikavita #hindipoetry