ग़ज़ल :- जुर्म उसने तो यहाँ देखो किया कुछ भी नही । फैसला हक में कभी उसके हुआ कुछ भी नही ।।१ हैं दिखावे की अदालत फैसला कुछ भी नही । यह वकीली खेल सारा मैं कहा कुछ भी नही ।।२ आदमी का आदमी से फर्क बस इतना रहा । ये रईसी देन गुरबत के सिवा कुछ भी नही ।।३ मत कहो अंधा उसे अब कर रहा जो जुर्म है । जानता है अंत इसका ठहरता कुछ भी नही ।।४ इश्क़ में हम तो उसी से आज आगे हो गये । पर खबर सबको यहाँ उसमें वफ़ा कुछ भी नही ।।५ बात अब हकदार की करता कहाँ मजदूर है । चोर ही हकदार है ऐसा सुना कुछ भी नही ।।६ बन गये अनपढ़ सभी हैं राजनेता अब यहाँ । देश सेवा काम पर हमको दिखा कुछ भी नही ।।७ अब यहाँ व्यापार मंडल कर रहा है धाँधली । ले रहा है कर सभी से लूटता कुछ भी नही ।।८ डाक्टरो का डर प्रखर को कर दिया बेसुध यहाँ । बिक गयी है खेत बारी हाथ क्या कुछ भी नही ।।९ ११/०९/२०२३ महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR ग़ज़ल :- जुर्म उसने तो यहाँ देखो किया कुछ भी नही । फैसला हक में कभी उसके हुआ कुछ भी नही ।।१