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जब दिन ढले पसरता है काली तन्हाई का ये मंज़र, तूफ़ाँ


जब दिन ढले पसरता है काली तन्हाई का ये मंज़र,
तूफ़ाँ सा उठने लगता है, इस ज़हन में ठहरा समंदर,
भर जाते हैं ख़्यालों से उसके, फिर भी रहते हैं खाली,
चाह में के क़िस्मत ले आये, फिर वो शाम पुरानीवाली,
पूरी जो हो सकती थीं, अधूरी ख़्वाहिशें अब भटकती हैं,
मोहब्बत तो हमारी लड़ लेती, पर उसकी कमज़ोरी खटकती है,
अब बैठ सोच रहे हैं, सुबकते दिल का ना ऐसा बुरा हाल होता,
किया होता फ़ैसले में शामिल उसने, तो शायद कम मलाल होता,
अनदेखा किया होगा हमने इशारों को, वरना ऐसा हो कहाँ सकता है,
तू ही बता ख़ुद से धोखा खाने का शौक़, आख़िर कौन यहाँ रखता है।



- आशीष कंचन 
#तन्हाईकामंज़र #collab #yqdidi   #YourQuoteAndMine  #yqbaba #yqhindi #yqtales
Collaborating with YourQuote Didi

जब दिन ढले पसरता है काली तन्हाई का ये मंज़र,
तूफ़ाँ सा उठने लगता है, इस ज़हन में ठहरा समंदर,
भर जाते हैं ख़्यालों से उसके, फिर भी रहते हैं खाली,
चाह में के क़िस्मत ले आये, फिर वो शाम पुरानीवाली,
पूरी जो हो सकती थीं, अधूरी ख़्वाहिशें अब भटकती हैं,
मोहब्बत तो हमारी लड़ लेती, पर उसकी कमज़ोरी खटकती है,
अब बैठ सोच रहे हैं, सुबकते दिल का ना ऐसा बुरा हाल होता,
किया होता फ़ैसले में शामिल उसने, तो शायद कम मलाल होता,
अनदेखा किया होगा हमने इशारों को, वरना ऐसा हो कहाँ सकता है,
तू ही बता ख़ुद से धोखा खाने का शौक़, आख़िर कौन यहाँ रखता है।



- आशीष कंचन 
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