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ता-हद्दे नज़र फैला...ये कैसा धुआँ है झूठ है हरसू मग

ता-हद्दे नज़र फैला...ये कैसा धुआँ है
झूठ है हरसू मगर..होता सच का गुमाँ है

बेनियाज़ी ये मेरी..किस मोड़ पे ले आयी
अपने ही घर को देखते हैं.. के किसका मकाँ है

देखे से तो लगता है.. के आईने में हम हैं
पर पीर दिल की कहती है.. वो कहां अयाँ है

हर तरफ़ हैं चेहरे.. रंगीनियों से रोशन फिर भी
ये ख़ामोशी मगर किसकी..आहो-फुगाँ है

यूँ तो सायबान बहुत हैं..शहर में लेकिन
क्यूँ वास्ते मेरे ही..ये इस कदर बे-अमाँ है

हरसू=हर ओर   अयाँ=जाहिर होना
आहो-फुगाँ=विलाप  
सायबान=छत/शरण
बे-अमाँ=जो शरण न दे सके

©Kumar Dinesh
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