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ढूँढ़ता हूँ हर जगह पर, उस शहर-सा नज़र न आया सजदा क

ढूँढ़ता हूँ हर जगह पर, उस शहर-सा नज़र न आया
सजदा कर लेते हम, हमें वहाँ दर-सा नज़र न आया

बद'किस्मती तो देखो हमारी, तुम्हारे ख़ातिर लड़ रहे
लड़ाई में हमें हार-जीत का, असर-सा नज़र न आया

उफ़्फ कितनी बार करें, आह कितनी बार भर ले हम
बाग़-ए-उल्फ़त में,  सत्ह-ए-बहर-सा नज़र न आया

काश! रह जाते ख़ाली जाम की तरह, मय-कशी में
ब-दस्त-ए-साक़ी का ज़ाम, ज़हर-सा नज़र न आया

या चश्म में खुला रहा इक रेग़िस्ताँ, हिज्र से भी बढ़ा
जहाँ मिले सुकूँ कोई ऐसा, शज़र-सा नज़र न आया

आख़री दो घुँट बाक़ी रहे है दोस्त, पिए जा सात में
देखा विशाल ने ताबूत, वो कब़र-सा नज़र न आया

©विशाल पांढरे
  #Silence #baat_qalam_ki