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अक्सर डर जाता हूं मैं अपने साये से कितना अंधेरा

अक्सर डर जाता हूं मैं 
अपने साये से

कितना अंधेरा पसरा है ना भीतर
कितने रंग हैं जो बिना खिले रह गए

क्या धूप नहीं पहुंचती गहरे तक
क्या ये अस्तर यूं ही मैले कुचैले रहेंगे
पूराने जख़्मों से टपके लहू से सने हुए

मेरे भीतर के डर का दमन करने वाले 
डर बढ़ा देते हैं
कुछ दिन खेलते हैं मेरे संग मुझे खिलौना समझ कर
जब मन भरता है फैंक देते हैं

कोई लिबाज नया बतलाए
कैसे छुपाते हैं दामन के दाग 
कोई मरहम पट्टी का सलीका सिखलाए

©Manish Sarita(माँ )Kumar
  अंधेरे अपने ही अक्ष के....



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