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मैं हूँ प्रकृति मैं हूँ प्रकृति, कितनी हरी-भरी थी

मैं हूँ प्रकृति

मैं हूँ प्रकृति, कितनी हरी-भरी थी मैं, अब हूँ बंजर, तन्हा और उदास 
मानव हो गया है गैरजिम्मेदार, नहीं है उसे अपनी ग़लतियों का आभास 

पेड़ों को काटकर कर दिया है उसने सब प्रदुषित, शुद्ध वायु के लिए अब किस पर रहेगा वो आश्रित 
अपने स्वार्थ की बस पड़ी है मनुष्य को, सब कुछ ध्वस्त करके भी वो हो रहा पुलकित 

सो गई आज इंसान की आत्मा है, उसके ज़ुल्म से हो रही पृथ्वी परेशान है 
मैं अपनी व्यथा आख़िर किससे कहूँ, लोगों की फ़ितरत में हो गया लालच विद्यमान है 

जहाँ पहले थी हरियाली और सुंदरता हर ओर, वहाँ आज उदास मंजर का है शोर 
जानवर भी नहीं रहे इस विनाश से अछूते, कोई तो करो इस समस्या पर कुछ तो गौर 

क्या होगा इस दुनिया का भविष्य, ये सोच कर मेरा दिल जाता है भर
नहीं होगी अगर प्रचुर शुद्ध वायु, कैसे होगी मानव की ज़िंदगी बसर

©Poonam Suyal #WorldEnvironmentDay 
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